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________________ रियल धर्म : रिलेटिव धर्म धर्म दो प्रकार के हैं : एक रिलेटिव धर्म और दूसरा रियल धर्म। रिलेटिव धर्म मतलब मनोधर्म, देहधर्म, वाणीधर्म और वे सब परधर्म हैं। जप कर रहे हों तो वह वाणी का धर्म है, ध्यान करना वह सब मन के धर्म और देह को नहलाना, धुलाना, पूजापाठ करना, वे सब देह के धर्म हैं। हर एक चीज़ उसके धर्म में ही रहती है। मन, मन के धर्म में ही रहता है, बुद्धि, बुद्धि के धर्म में, चित्त, चित्त के धर्म में और अहंकार, अहंकार के धर्म में ही रहता है, कान, कान के धर्म में रहते हैं। ये कान हैं, वे सुनने का काम करते हैं, वे थोड़े ही देखने का काम करते हैं! आँखें देखने का काम करती हैं, सुनने का नहीं। नाक सूंघने का धर्म निभाती है, जीभ स्वाद का धर्म निभाती है और स्पर्शेन्द्रियाँ स्पर्श के धर्म में ही रहती हैं। हर एक इन्द्रिय अपने-अपने विषय के धर्म में ही होती हैं। मन, मन के धर्म में हो, तब उल्टे विचार आते हैं और सुल्टे विचार भी आते हैं, लेकिन वह अपने धर्म में है। लेकिन सुल्टा विचार आए तब खुद कहता है कि मेरे अच्छे विचार हैं, लेकिन खुद उसमें भ्रांति से तन्मयाकार हो जाता है और उल्टे विचार आएँ तब खुद उनसे अलग रहता है और तब कहता है कि मेरी इच्छा नहीं है, फिर भी ऐसे उल्टे विचार आ रहे हैं! अंत:करण में सभी के धर्म अलग-अलग हैं। मन के धर्म अलग, चित्त के धर्म अलग, बुद्धि के धर्म अलग और अहंकार के धर्म अलग। ऐसे, सबके धर्म अलग-अलग हैं। पर 'खुद' अंदर दख़ल करके बखेड़ा खड़ा करता है न? भीतर तन्मयाकार हो जाता है, वही भ्रांति है। तन्मयाकार कब नहीं होता है कि जब 'ज्ञानीपुरुष' स्वरूप का ज्ञान दें तब तन्मयाकार
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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