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________________ 418 आप्तवाणी-२ यही का यही पिछले जन्म में किया है और उसका फल है यह। लक्ष्मी जी के साथ भी यही करने लगे और तेज़ दिमाग़ से काम लेने लगे हैं! 'इन दो पैरों से गिर जाते हो, तो चार पैर रखो अब।' भगवान ऐसा कहते हैं! हमें मुँह पर कहना पड़ता है, यह क्या अच्छा दिखता है? 'ज्ञानीपुरुष' को मुँह पर कहना पड़ता है कि, 'दो पैरोंवालों के चार पैर हो जाएँगे!' लेकिन सावधान करने के लिए लाल झंडी दिखा रहे हैं कि गाड़ी आगे मत जाने देना, बड़ा पुल टूट गया है! करुणा आती है 'ज्ञानीपुरुष' को! उन्हें द्वेष नहीं होता, लेकिन करुणा आती है। इतना ऊपर चढ़ा, वीतरागों से अमरपद माँग सके, इतनी तुझमें शक्ति है, लेकिन मार्ग अवरूद्ध हुआ इसलिए यह सब उत्पन्न हो गया है। मार्ग तो अवरूद्ध होता है, बैठे भी रहना पड़ता है। आपको पसंद आई या हमारी बातें कठोर लगती है? प्रश्नकर्ता : दादा, बहुत पसंद हैं आपकी बातें। दादाश्री : भीतर जो बैठे हैं वे भगवान हैं, 'यह तो पैकिंग है।' पुद्गल भगवान नहीं होता और पौद्गलिक भाव, वह भी भगवान नहीं है। भगवान तो भगवान ही हैं, ज्ञाता-दृष्टा और परमानंदी। उनके पास हमारी सर्व कामनाएँ पूरी हो जाती हैं और मोक्ष की कामना भी पूरी होती है। इच्छाएँ जो थोडी बहत रह गई हों, वे भी पूरी हो जाती हैं। इच्छाएँ पूरी किए बिना वहाँ मोक्ष में घुसने नहीं देंगे, वहाँ तो मुँह पर अरंडी का तेल हो उसे तो घुसने ही नहीं देते! लोगों के मुँह पर अरंडी का तेल देखने को मिलता है या नहीं मिलता? किसी के चेहरे पर क्या अरंडी का तेल चुपड़ते हैं लोग? नहीं, वह तो यों ही भीतर कढ़ापा-अजंपा होता है और उससे अरंडी के चेहरेवाले बन जाते हैं ! और वह चालाकी? ब्रेन की चालाकी? कैसी चालाकी कि ऐसों-वैसों को तो वह कुछ गिनता ही नहीं! सरल व्यक्ति तो उसकी गिनती में ही नहीं होते! कितनी अधिक चालाकी! तरणतारण ही तारें मूल मोक्षमार्ग को जानना चाहिए, मोक्षमार्ग के दाता की आवश्यकता है और वे तरणतारण होने चाहिए। खुद तर चुके होंगे तभी हमें तार सकेंगे,
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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