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________________ ३०० आप्तवाणी-२ जो संत पुरुष हो चुके हों, उनकी चित्त की मलिनता कम हो चुकी होती है। उन्हें जब संसार की इच्छा होती है, तब शरीर को कष्ट देते हैं कि ऐसी इच्छा करता हैं ! आँख में मिर्ची भी डालते हैं। अब ऐसे ज्ञान को फॉरेनवाले क्या कहते हैं? 'ये तो विचित्र, अव्यवहारिक लगते हैं।' औरों को भी ऐसे लोग अव्यवहारिक लगते हैं, लेकिन यहाँ के लोगों को ऐसे लोग समझदार लगते हैं ! यह तो आँख की भूल के कारण आँख में मिर्ची डालते हैं, लेकिन इसमें आँख का क्या दोष? दोष तो देखनेवाले का है। हिन्दुस्तान में तो लोग मुँह को भी ताला मार दें, ऐसे हैं! ये लोग तो शरीर का भान चला जाए, उसे निर्विकल्प समाधि कहते हैं, क्योंकि इन्द्रियों का भान गया और मानता है कि अतीन्द्रिय में पहुँच गया। ना, अतीन्द्रिय तो बहुत दूर है। इन्द्रिय का भान जाने दिया, अतीन्द्रिय में गए नहीं तो किसमें हो? निरीन्द्रिय में, तो निरीन्द्रिय में 'हम-हम' करते हैं और उसे निर्विकल्प समाधि मानते हैं। फिर भी, इन लोगों की नीयत सच्ची है। आँखों में मिर्ची डालते हैं उसमें उनकी नीयत अच्छी है, इसीलिए कभी न कभी मोक्ष प्राप्ति करेंगे। क्रमिक मार्ग में तो ठेठ मोक्ष में जानेवाला हो, तब निर्विकल्प समाधि की शुरूआत होती है, जबकि यहाँ अक्रम मार्ग में आपको निर्विकल्प समाधि प्राप्त हो चुकी है! क्रमिक में तो अंत तक केश-लुंचन (नोचकर केश निकालना) करना होता है, अन्य जो भी त्याग लिखे हैं, वे करने होते हैं, 'यह विधि करनी है, यह त्याग करना है, वह करना है,' ऐसा सब रहता है। वहाँ कर्ता अलग, कर्म अलग, ज्ञाता अलग और फिर साथ-साथ यह भी कहेगा कि, 'मुझे अभी ध्यान करना है।' वहाँ कर्ता अलग, ध्येय अलग और ध्यान भी अलग। उसमें तो तीनों जब एक हो जाएँ तब जाकर निर्विकल्प का स्वाद चखने को मिलता है, लेकिन फिर भी क्रमिक में अंत तक कर्तापन रहता है। इसलिए ‘ध्यान का मैं कर्ता हूँ' ऐसा कहेगा। ध्येय निर्विकल्पी और ध्याता विकल्पी, वह कैसा ध्यान करेगा? फिर भी, निर्विकल्पी का ध्यान विकल्पी करता है, इसलिए निर्विकल्पी हो
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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