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________________ आप्तवाणी-२ गाँव में जन्म ले ही चुके होते हैं। यानी आपको तो सिर्फ आवाज़ ही लगानी पड़ती है कि, 'मेरे घर में साँप निकला है, ' तो वे दौड़ते हुए आ जाते हैं, क्योंकि दुकान लगाई हुई ही होती है ! २८० अहिंसक भाववाला तीर मारे तो ज़रा सा भी खून नहीं निकलता और हिंसक भाववाला फूल डाले, तब भी किसी को खून निकल जाता है। तीर और फूल इतने इफेक्टिव नहीं हैं, जितनी इफेक्टिव भावना है। इसलिए हमारे एक-एक शब्द में निरंतर हमें ऐसा भाव रहता है कि 'किसी को दुःख नहीं हो, जीव मात्र को दुःख नहीं हो' जगत् के जीव मात्र को इस मन-वचन-काया से किंचित् मात्र भी दुःख नहीं हो, इस भावना से ही हमारी वाणी निकलती है । चीज़ काम नहीं करती, तीर काम नहीं करता, फूल काम नहीं करते, लेकिन भाव काम करते हैं । इसलिए हम सभी को भाव कैसे रखने चाहिए कि, प्रातःकाल निश्चित करना चाहिए कि, 'जीव मात्र को इस मन-वचन - काया से किंचित् मात्र भी दुःख नहीं हो ।' ऐसा पाँच बार बोलकर, यदि सच्चे भाव से बोलकर निकलें और बाद में यदि आपसे गुनाह हो गया तो यू आर नॉट एट ऑल रिस्पोन्सिबल ( आप तनिक भी ज़िम्मेदार नहीं हो), ऐसा भगवान ने कहा है । ऐसा क्यों कहा? तो कहते हैं, 'साहब मेरी तो ऐसी भावना नहीं थी ।' तो भगवान कहते हैं कि, 'यस, यू आर राइट!' जगत् ऐसा है। यदि आपने किसी को भी, एक भी जीव को नहीं मारा हो और आप ऐसा कहो कि, 'जितने भी जीव आएँ, उन्हें मारना ही चाहिए' तो पूरे दिन की जीव हिंसा के आप हिस्सेदार बनते रहते हैं। यानी कि ऐसा है जगत् ! दया, आत्मभाव की रखो जगत् तो समझने जैसा है। भगवान कहते हैं कि, 'जंतुओं को मारना या नहीं मारना, वह सत्ता तेरे हाथ में नहीं है, संडास करने की भी तेरी खुद की स्वतंत्र शक्ति नहीं है।' वह तो जब अटके तब पता चलेगा कि यह सत्ता मेरी नहीं है। एक बार तू तेरी सत्ता जान ले । भगवान कहते हैं कि, 'एक जीव को मारना, यानी कितने सारे कारण इकट्ठे हों तब वह कार्य होता है।' मारनेवाला सिर्फ भाव ही नक्की करता है कि, 'मुझे मारना
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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