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________________ २७० आप्तवाणी-२ कुछ भी नहीं करना होता है। मात्र यदि 'ज्ञानीपुरुष' मिल जाएँ तो ज्ञानी की आज्ञा, वही तप और वही धर्म। 'ज्ञानी' मिलने के बाद नया तप खड़ा होता है - आंतरिक तप। आंतरिक तप से मोक्ष होता है और बाह्य तप से संसार मिलता है! कोई गालियाँ दें तो अंदर तुरंत ही नक़द प्रतिक्रमण करो, इसे आंतरिक तप कहते हैं। जन्म हुआ, तभी से मन-वचन-काया लेकर आया है। मुख्य मोह और मुख्य परिग्रह ये ही हैं । इन तीनों से ही अन्य अनेक मोह और परिग्रह उत्पन्न होते हैं इसलिए सबका त्याग नहीं किया जा सकता। जगत् क्रमबद्ध है, कभी भी क्रम नहीं टूटता। किसी व्यक्ति को क्रम में त्याग मिला तो वह त्याग करता है और आगे जाकर उसी के फलस्वरूप संसार मिलता है। परिग्रह तो अनेकों हैं। तू लाख परिग्रह लेकर आए, फिर भी हम तुझे यों सिर पर हाथ रखकर अपरिग्रही बना देंगे! अपरिग्रही तो समझ के भेद के कारण है। यह अक्रम मार्ग है और वह क्रमिक मार्ग है। क्रमिक मार्ग में, लाख सब छोड़कर जंगल में जाए, लेकिन मन-वचन-काया साथ में हैं इसलिए परिग्रह साथ में ही होता है, उसी से नया संसार खड़ा कर देता है। जबकि अक्रम मार्ग में परिग्रहों में अपरिग्रही रहकर मोक्ष है। भरत राजा को कैसा था? महल, राजपाट और तेरह सौ-तेरह सौ तो रानियाँ थीं, फिर भी ऋषभदेव भगवान ने उन्हें 'अक्रम' ज्ञान दिया, उसी से सारे वैभव सहित रहते हुए भी वे मोक्ष में गए! कुछ लोग कपड़ों को परिग्रह मानते हैं और एक सौ आठ शिष्य रखते हैं। क्या ये कपड़े काटते हैं? खरा परिग्रह तो यह जीवंत परिग्रह ही हमें कैसा रहता है? कि यह मकान जल रहा हो फिर भी उसका परिग्रह नहीं होता! सहज रहता है। यह हमारे सामने खाने की थाली रखी हो और कोई उठाकर ले जाए तो हम उसे विनती करते हैं कि, 'भाई, सुबह से भूखा हूँ।' यदि भूखे होंगे तो विनती करके माँग लेंगे और फिर भी उठाकर ले ही जाए तो हमें कोई हर्ज नहीं। माँगना, उसे परिग्रह नहीं माना जाता। भले ही ज्ञानी हों, लेकिन माँगना पड़ता है। हमें भोजन की
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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