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________________ व्यवहारिक सुख-दुःख की समझ १८९ व्यापार का दुःख व्यापार के सिर पर और समाज का दुःख समाज के सिर पर डाल देते हैं। अगर तेरे बाल काट ले तो उसे दुःख नहीं कहेंगे। कान काटे तो उसे दुःख कहा जाता है क्योंकि वेदना होती है। फिर भी, अपने सत्संग में आए तो वह दुःख भी भूल जाता है, कान की वेदना भी भूल जाता है! एक बाप था। वह एक डॉक्टर का परिचित था। उसके बेटे को उँगली में चोट लगी थी, वह फिर पक गया। इसलिए उसका ऑपरेशन करना था। बाप ने बेटे को बहुत बिगाड़ रखा था। बाप बहुत पैसेवाला था। अब डॉक्टर ने कहा कि 'मैं घड़ीभर में ही ऐसे ऑपरेशन कर दूंगा, आप चिंता मत करना।' लेकिन सेठ ने कहा कि, 'मुझे ऑपरेशन थियेटर में बैठने दो।' सेठ तो बड़े आदमी, इसलिए डॉक्टर को उन्हें बैठने देना पड़ा। अब बाप बैठा हुआ था ऐसे आठ फुट दूर और डॉक्टर ने उँगली का ऑपरेशन करने के लिए चीरा लगाया। अब वहाँ तो कोई तार नहीं जोड़ा था, कुछ भी नहीं था, फिर भी इस मूर्ख को बिना तार के आँख में से पानी निकलने लगा। ऐसे बिना तार के पानी निकले तो क्या होगा? उसे तो बेवकूफ ही कहना पड़ेगा। रोने जैसा नहीं है यह जगत्। और जहाँ रोने की नौबत आए, वहाँ पर हँसना। यह कैसा है कि अच्छी रकम से भाग लगाएँ तो खराब रकम पूरी उड़ जाती है। जहाँ दुःखों का भागाकार करना हो, वहाँ उसे गाकर उसका गुणा करता है, इसके बजाय तो अघर हँसकर उस रकम को मिटा दे तो शेष नहीं बचे! एक व्यक्ति कह रहा था कि, 'बिरादरी में मेरी इज़्जत गई।' वह बिरादरी का दुःख, उसमें तुझे किसका दुःख? दुःख तो देह को स्पर्श करे वह कहलाता है। महावीर भगवान की देह को दु:ख ने स्पर्श किया था। उनके कानों में नरकट डाल दिए थे, वे जब निकाले तब ऐसी वेदना हुई कि आँखों में से पानी निकल पड़ा और ज़ोर से चीख निकल गई। ऐसा तो सभी को होता है। देह और आत्मा तो अलग हैं, लेकिन जब तक माना हुआ आत्मा रहता है, तब तक देह जीवित रहती है। प्रतिष्ठित आत्मा कन्ज्यूम हो जाए, काम में आ जाए, उसके बाद देह खत्म हो जाती है।
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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