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________________ १८४ आप्तवाणी-२ है। और सत्संग में बैठे तो सुख मिलता रहता है। यह तो, व्यक्ति कौन से संग में है, उस पर से उसे कैसा सुख होगा, वह समझ में आता है। दुःख, वह किसे कहा जाता है? खुद को दुःख है ही नहीं। जबकि दुःख पड़ता है दूसरे पर, लेकिन समझ में नहीं आता इसलिए खुद, अपने आप पर दु:ख ले लेता है। यदि तीन दिन खाने को नहीं मिले, पीने को नहीं मिले, तो उसे दुःख कहते हैं । खाने-पीने का सबकुछ अच्छी तरह मिलता है, फिर भी यह दूषम मन सभी दुःख इकट्ठे करता है और दुःख को स्टॉक करता है। इन्हें तो भला दुःख कहते होंगे?! दुःख तो किसे कहते हैं? कि खाने को नहीं मिले, कपड़े पहनने को नहीं मिलें, सोने को नहीं मिले, वे सब दुःख कहलाते हैं। ये सब मिल जाएँ तो फिर दुःख किसे कहेंगे? ये तो संसार में दूषम मन के कारण दुःख हैं, वह सुषम मन बन जाए, तब सुखी हो जाएँगे! जब मन बिगड़ जाता है, तब आधि (मानसिक पीडा) को निमंत्रण देता है, नहीं होती फिर भी आधि को बुलाता है। अगर कभी दाढ़ दुःखे तो उसे दुःख कहा जा सकता है। बाकी दुःख तो है ही नहीं, लेकिन लोगों ने सारा अजंपा (बेचैनी, अशांति, घबराहट) किया है। जिसके उपाय मिल सकें, उसे दुःख कहा जाता है। उपाय हों, तभी दुःख कहलाता है। जिसका उपाय नहीं है, वह दुःख कहलाता ही नहीं। जो दु:खता है, उसका उपाय करते ही हैं न! यह पैर है, वह लड़ाई में कट जाए, तब तो वह पैर फिर से नहीं आ सकता, इसलिए वह दुःख नहीं कहलाता, क्योंकि उपाय नहीं है। लेकिन पैर में फँसी पकी हो तो वह दु:ख कहलाता है, क्योंकि वह मिटाई जा सकती है, उसका उपाय है। कोई कहे, मुझे सब ओर से सुख है, फिर भी इस पैर में दाद हुआ है, ज़रा इतना ही दुःख है। अरे इसे दुःख कैसे कहेंगे? इसे तो हाथ अपने आप खुजलाता रहेगा। प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, हमारे आर्थिक संयोग बदल गए हैं, वह?
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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