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________________ व्यवहारिक सुख - दुःख की समझ इस संसार के जो सुख - दुःख हैं, उन्हें भगवान ने सुख-दुःख नहीं कहा है। भगवान ने इसे वेदनीय कहा है। सुख को शाता वेदनीय कहा है और दुःख को अशाता वेदनीय कहा है। प्रश्नकर्ता : वेदनीय क्यों कहा? दादाश्री : क्योंकि उसकी मात्रा बढ़ जाए तो ऊब जाता है। यदि भोजन रोज़ एक ही प्रकार का दें तो ऊब जाएँगे । इसलिए वह भी वेदना ही है न! पुण्यकर्म से शाता वेदनीय और पापकर्म से अशाता वेदनीय है। शादी में सभी लोग आनंद में होते हैं और भाई के चेहरे पर अरंडी का तेल पीया हो ऐसा क्यों दिखता है? तब कहे, 'भीतर' अशाता वेदक है। तो वह कभी इधर से मारता है और कभी उधर से मारता है और कुछ भी करके दुःख के साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्सिस जमा कर देता है और इन्हें दुःख देता है । ऊपर कोई भगवान या ग्रह वगैरह दु:ख नहीं देते हैं। ऊपर कोई बाप भी बेकार नहीं बैठा है आपको दुःख देने के लिए। यह तो भीतर वह वेदक है, वह ऐसा करवाता है । इसमें आत्मा नहीं है। आत्मा के अलावा दूसरी वस्तु है । यह तो पूरी सेना अंदर है । पुलिसवाला, फोज़दार, उसका ऊपरी वे सभी इस सेना में हैं। प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानीपुरुष' में ये दो वेदक नहीं होते हैं न, दादा? दादाश्री : नहीं, 'ज्ञानी में भी होते हैं।' लेकिन ज्ञानी देखते और जानते हैं। कुछ अपयश मिले तो हमें कहना चाहिए कि यह तो आपका हिसाब है इसलिए अपयश मिला। हमें तो ज्ञाता - दृष्टा और परमानंदी, यानी पड़ोसी की तरह रहना है । ये तो सब टेम्परेरी एडजस्टमेन्ट हैं। किसी की दाढ़ दुःखने लगे तो वह क्यों ऐसा नहीं सोचता कि यह हमेशा दुःखती
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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