SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तवाणी-२ लेकिन पुद्गल भी लोकपूज्य बन सकता है, ऐसा है, लेकिन कलुषित भाव निकल जाएँ तब! खुद में कलुषित भाव नहीं रहें और सामनेवाले के कारण खुद को कलुषित भाव नहीं हों तो पुद्गल भी लोकपूज्य हो जाता है! सामनेवाले के कलुषित भाव में भी खुद कलुषित नहीं हो तो पुद्गल भी लोकपूज्य बन जाता है। अन्य भाव भले ही रहें लेकिन कलुषित भाव उत्पन्न नहीं होना चाहिए। जो खुद के लिए, दूसरों के लिए, किसी जीव मात्र के लिए कलुषित भाव नहीं करे तो वह पूज्य बन जाता है। हमने' हममें क्या देखा? हममें से क्या निकल गया? यह हमारा पुद्गल किसलिए लोकपूज्य बन गया है? हम 'खुद' तो निरंतर 'हमारे स्वरूप' में ही रहते हैं लेकिन इस पुद्गल में से सर्व कलुषित भाव निकल गए हैं! इसलिए यह पुद्गल भी लोकपूज्य बन गया है ! मात्र कलुषित भाव चले गए हैं, फिर खाते हैं, पीते हैं, कपड़े पहनते हैं, अरे ! टेरिलीन के भी कपड़े पहनते हैं और इसके बावजूद भी लोकपूज्य पद है! यह भी इस काल का आश्चर्य है न! 'असंयति पूजा' नाम का यह ग्यारहवाँ आश्चर्य है! इस 'अक्रम मार्ग' में तो कलुषित भाव निकल जाएँ, ऐसा मार्ग है। कलुषित भाव रहते ही नहीं, खत्म हो जाते हैं ऐसा है। तब फिर खुद को तो क्लेश नहीं रहता, लेकिन खुद के कारण सामनेवाले को भी क्लेश नहीं होते और सामनेवाला, क्लेशवाला हमारे अकलुषित भाव से ठंडा पड़ जाता है, पूरा भाव ही चेन्ज हो जाता है! यह 'मकान' कभी भी कलुषित होता ही नहीं है। लेकिन खुद कलुषित भाववाला है, इसलिए फिर ‘मकान' भी कलुषित दिखता है। फिर कहे कि यह 'रूम' मुझे रास नहीं आता। खुद के कलुषित भावों का इसमें आरोप किया इसलिए सब बिगड़ जाता है। कलुषित भाव निकल जाएँ तो पुद्गल भी पूज्य हो जाए, ऐसा यह जगत् है! फिर चाहे कोई भी हो, मुस्लिम हो या जैन हो या वैष्णव हो, जिसके वे कलुषित भाव निकल जाएँ, वह लोकपूज्य बन जाता है! ये औलिया होते हैं, उनमें तो थोड़े-बहुत कलुषित भाव निकल जाते हैं, इसलिए वे दर्शन करने योग्य लगते हैं। फिर भी औलिया में वह नैचुरली है, विकासक्रम के रास्ते में आते ही हो जाता है। उसमें उनका खुद का
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy