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________________ 'सद्गुरु' कौन? अंतिम गुरु वे 'ज्ञानीपुरुष,' लेकिन जब तक वे नहीं मिलें, तब तक जो अपने से ऊँची स्टेज पर हों, भले ही दो डिग्री ऊँचे हों, तो वे गुरु। 'सत्धर्म' यानी क्या? 'ज्ञानीपुरुष' की आज्ञा, वही सत्धर्म, 'ज्ञानीपुरुष' के श्रीमुख से निकले हुए वचन वे ही सत्धर्म हैं, वर्ना शास्त्र, वे सत्धर्म नहीं हैं। वे रिलेटिव धर्म हैं, रियल नहीं हैं। लेकिन जब तक सच्चे मोती नहीं मिलें, तब तक कल्चर्ड मोती पहनने तो पड़ेंगे न? सत्देव, सत्गुरु और सत्धर्म से मोक्ष प्राप्त होता है! मूर्तिधर्म क्या है? अमूर्तधर्म क्या है? 'दादाश्री' ने मूर्तिधर्म और अमूर्तधर्म का सुंदर विवरण दिया है। कुछ लोग नासमझी से भगवान की मूर्ति को नहीं मानते, धिक्कारते हैं। तो वह भयंकर भूल है। मूर्ति की उपासना कब तक करनी चाहिए कि जब तक अमूर्तधर्म को, आत्मधर्म को, आत्मज्ञान को प्राप्त नहीं किया हो। जब तक आत्मा नहीं जाना है, तब तक चित्त की एकाग्रता के लिए कुछ साधन तो चाहिए न? और जहाँ हज़ारों लोगों ने वीतराग भगवानों की स्थापना की है, उस मूर्ति का तिरस्कार कैसे कर सकते हैं? और जो यथार्थ आत्मज्ञानी हैं वे तो तिरस्कार तो क्या लेकिन प्राप्त मन-वचन-काया से किसी भी जीव को किंचित् मात्र भी दु:ख नहीं देते। मूर्तिधर्म, यह तो भारत का साइन्स है, अमुक स्टेन्डर्ड तक के लोगों के लिए धर्म का अवलंबन है। उस अवलंबन को गलत कैसे कहा जा सकता है? और जिसे मूर्तिधर्म की ज़रूरत नहीं हो, जो उस स्टेन्डर्ड से आगे निकल चुके हों, संपूर्ण आत्मज्ञानी, सर्व कलुषित भावों से रहित होकर आगे निकल चुके हों और केवल अमूर्त की ही रमणता में हों, वे मूर्तिधर्म को नहीं स्वीकारें तो वह योग्य है। लेकिन ऐसी दशा में जो पहुँच चुके हों, उनके लिए जगत् में स्वीकार या अस्वीकार करने जैसा कुछ रहता ही नहीं, वे तो सबके व्यू पोइन्ट को समझकर इस प्रकार से बरतते हैं किसी का भी प्रमाण किंचित् मात्र आहत न हो! 13
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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