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________________ विज्ञान है। सामान्य समझ से धर्म के विषय में जो समझ में आता है, वह असल धर्म नहीं कहलाता। 'वस्तु स्व-गुणधर्म में परिणामित हो, वह धर्म है।' - दादाश्री साइन्टिफिक तरीके से यदि समझें तो जैसे सोना सोने के गुणधर्म में हो, तभी वह सोना कहलाता है, पीतल को बफिंग करके रखें तो वह कभी भी सोना नहीं बन सकता। वैसे ही वस्तु जब खुद के स्व-गुणधर्म में, स्व-स्वभाव में परिणामित होती है, तब वह वस्तु उसके गुणधर्म में है, वस्तु खुद के धर्म में है, ऐसा कहा जा सकता है और वस्तु उसके गुणधर्म से कभी भी भिन्न नहीं हो सकती। आत्मा जब खुद के गुणधर्म में ही रहे, खुद के स्वभाव में आकर स्व-स्वभाव में ही स्थित हो जाए, तब आत्मा आत्मधर्म में है, ऐसा कहा जा सकता है। इसे ही सर्वज्ञ भगवान ने स्वधर्म, आत्मधर्म, रियल धर्म कहा है। आत्मधर्म कैफ़ उतारता है और प्राकृतधर्म कैफ़ चढ़ाता है। खुद जब संपूर्ण निष्पक्षपाती हो जाता है, अरे! खुद अपने आप के लिए भी संपूर्ण निष्पक्षपाती होकर, खुद के एक-एक सूक्ष्मतम तक के दोष भी देख सके, वही रियल धर्म में आया हुआ माना जाएगा। - संसार-स्वरूप क्या है? संसार रिलेटिव वस्तु है, टेम्परेरी है। संसार पूरा दगा है, इसमें कोई अपना सगा नहीं है। तमाम शास्त्रों में से करीब तीन चौथाई शास्त्र संसार में से वैराग्य उत्पन्न हो, उसके लिए हैं, जबकि 'ज्ञानीपुरुष' के चार ही वाक्यों में अच्छे-अच्छों को संसार पर से वैराग्य आ जाता है! 'अरे भाई! तूने अरथी देखी है या नहीं देखी? अरथी निकालते हैं, तब बीवी-बच्चे, मोटर-बंगला, जितना-जितना कमाया वह सभी जब्ती में चला जाता है या नहीं? और साथ में क्या आता है? तो वह यह कि जितनी धाराएँ लागू की हैं, ४२० की, ३४४ की, वे सभी साथ में आती हैं और नये सिरे से कमाई करके भाई को उधार चुकाना बाकी रहता है।' - दादाश्री
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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