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________________ प्रकृति जा न! सहज यानी प्रकृति जैसी प्रेरणा दे, वैसे चले। प्रकृति विषयी नहीं है, विषयी होती तो इन जानवरों में भी वह दिखती । विषय, वह खुद का विकृत स्वभाव है। प्रकृति तो सहज स्वभाव में है । उसे खाने-पीने के लिए दाल-चावल चाहिए। वह कोई ढोकले नहीं माँगती। षट् (छह) रस माँगती है। वे सहज रूप से मिल जाएँ, ऐसा है, जबकि यह तो आलूबड़े माँगता है। सहज में कोई दोष नहीं है, विकृत में दोष है । 'ज्ञानीपुरुष' खुद अपने स्वभाव में रहते हैं और प्रकृति को प्रकृति में रखते हैं। घर - प्रकृतियों का बगीचा ६९ इस जगत् में जो कुछ भी हो रहा है, वह प्रकृति के गुणों से हो रहा है, आत्मा के गुणों से नहीं हो रहा है। इसलिए प्रत्येक प्रकृति के गुणों को पहचान लेना चाहिए । प्रकृति के दोषों की वजह से सामनेवाला दोषित लगता है। हमें खुद प्रकृति के गुणों को ही देखना है । इससे क्या होता है कि ‘उन' दोषों को मज़बूत होने का अवकाश ही नहीं मिलता। हमारे इतने सारे, हज़ारों महात्मा हैं, फिर भी क्यों सबके साथ रास आता है? क्योंकि सभी प्रकृतियों को हम पहचानते हैं । उनके काँटों को हम नहीं छूते, हम तो उनके फूलों को ही देखते हैं ! यदि चंपा, गुलाब की भूल निकाले कि, 'तुझमें काँटे हैं, तुझमें कोई बरकत नहीं,' तो गुलाब उससे कहता कि, 'तू तो सूखे ठूंठ जैसा दिखता है' और झगड़ा हो जाता । बगीचे में यदि ये प्रकृतियाँ बोल सकतीं तो पूरे बगीचे में लड़ाई-झगड़ा हो जाता। उसी तरह यह संसार भी बगीचा ही है । यह(मनुष्य) प्रकृति बोलती है, इसलिए औरों की भूल निकालने से लड़ाईझगड़े हो जाते हैं। में घर मनुष्यों की प्रकृतियाँ तरह - तरह की होती हैं । पहले सत्युग के सभी लोग गुलाब जैसे होते थे। अभी तो एक मोगरा, एक चंपा, एक गुलाब, ऐसे अलग-अलग इस कलियुग में इकट्ठे होते हैं। सभी अलगअलग प्रकृतियाँ इकट्ठी हो जाती हैं। वैसे ही ये छोटे-बड़े सब लोग इकट्ठे हो जाते हैं। उसमें बाप को होता है कि सब मेरी तरह गुलाब बन जाएँ ।
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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