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________________ (93) दस हो। दोनों का लक्ष्य निर्वाण ही है। राग-द्वेष-मोह आदि कर्मक्षय हो जाने पर ही अर्हत्व या बुद्धत्व की प्राप्ति हो पाती है। जैन परंपरा भी इस प्रकार चौदह गुणस्थान मान्य करती है। जो भी आत्मा केवल ज्ञान का वरण करती है, उनको इन चौदह गुणस्थानों पर आरोहण करके, गुणश्रेणी करनी पड़ती है। उसके पश्चात् अर्हत् हो या सामान्य केवली हो, उनको कर्मक्षय करके मोक्षावस्था प्राप्त हो सकती है। उपर्युक्त भूमियाँ इन चौदह गुणस्थानों के समकक्ष कही जा सकती हिन्दु परम्परा में जिस प्रकार अवतार का प्रयोजन धर्म संस्थापना है, उसी प्रकार बौद्ध परंपरा भी धर्मप्रर्वत्तन तथा संघ स्थापना हेतु बुद्ध का अवतार लेना स्वीकार करती है। हिन्दु परंपरा एतदर्थ दिव्य अंशों का अवतरण मान्य करती है किन्तु बौद्ध परंपरा मनुष्य का ही विकासक्रम आध्यात्मिकता के सोपानों द्वारा उत्कर्ष पर पहुँचातीहै, दिव्य अंशों को नहीं। जैसा कि जैन परंपरा भी स्वीकार करती है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में अर्हत् ब्राह्मण परंपरा वेद अनुलक्षी है। वेद विहित तथा वेद मान्य दर्शनों में न्यायवैशेषिक दर्शन की भी गणना की गई है। वैशेषिक सूत्र दर्शन के प्रणेता कणाद तथा न्याय दर्शन के प्रणेता गौतम है। न्याय-वैशेषिक धर्म संस्थापक के रूप में अवतारवाद को मान्य करते दिखाई नहीं देते, जैसा कि इतर परंपरा में मान्य किया गया है। वास्तव में वैशेषिक दर्शन पदार्थ विचारणा के अतिरिक्त पूर्णतया न्याय दर्शन पर ही अवलम्बित है। अर्थात् न्याय दर्शन के सिद्धान्तों पर अनुगमन करता है। __ न्याय दर्शन में अवतारवाद का वर्णन दृष्टिगत नहीं होता। अतः धर्मप्रवर्तनसंस्थापक में रूप किसे मान्य किया गया? सर्वोच्च कक्षा पर न्याय वैशेषिककार ने ईश्वर को मान्य किया है। ईश्वर ही जगत् का नियन्ता है, तो वही सृष्टि का संहार भी कर सकता है। स्रष्टा के साथ-साथ वह उपदेष्टा है, मार्गदर्शक है। जैन परंपरा अर्हत् को ही मात्र धर्म संस्थापक के रूप में स्वीकार करती है, किन्तु न्यायदर्शन में धर्मसंस्थापक के अतिरिक्त मुख्य कार्य सृष्टिकर्ता के रूप में मान्य किया है।
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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