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________________ (71) मनोविज्ञान मात्र मनुष्य के मन-हृदय के परिवर्तन को स्वीकार करता है, जबकि अर्हत् प्रभु का अतिशय बहुल व्यक्तित्व प्राणी मात्र में वैचारिक शुद्धता का द्वारोद्घाटन करती है। अर्हत् महावीर परमेष्ठी द्वारा भंयकर विषधर चंडकौशिक को बोध, अर्हत् मुनिसुव्रत द्वारा अश्वावबोध आदि अनके ऐतिहासिक संदर्भो से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। अनेक ऐसे भी प्रमाण उपलब्ध होते हैं, जिनमें मात्र परमेष्ठी पदों का नाम स्मरण ही इतना प्रभावक है, तो उनका दर्शन, उनका उपदेश का प्रभावोत्पादक होना अतिशयोक्ति नहीं। इस प्रकार अर्हत् परमेष्ठी की लोक मंगल की उदात्त भावना मन-हृदय तथा व्यक्तित्व रूपान्तरण में आमूल-चूल परिवर्तन लाकर साधना मार्ग में, सत्य पथ पर आरूढ़ करती है। कल्याण कामना को प्रस्फुटित करती हुई अन्तरभावना आसुरी वृत्तियों के नाश में सहायक सिद्ध होकर अमृतत्व का संचार करती है। कषाय-विषय विकारों से उत्पीड़ित जन मानस, राग द्वेष का नाश होने से धर्माचरण में प्रेरित होता है। स्वहित और परहित में तत्पर हो जाता है। इस प्रकार अर्हत् परमेष्ठी सद्प्रवृत्तियों में प्रेरित और दुष्प्रवृत्तियों से निवृत्ति दिलाकर सुख और शान्ति का साम्राज्य स्थापित करते हैं। (2) धर्मसंस्थापना 'परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्' द्वारा धर्म की स्थापना न करके उसके स्थान पर अहिंसादि पंचमहाव्रतों के पालन द्वारा हिंसादि दुष्टता का नाश तथा लोक कल्याण एवं विश्वमैत्री के लिए धर्मसंस्थापना जब भी किसी धर्म प्रवर्तक के द्वारा धर्मसंघ की स्थापना होती है, वह निश्चित प्रयोजन को लक्ष्य में रखकर होती है। हिन्दु परम्परा में अवतार का अवतरण निश्चित प्रयोजन को लेकर होता है तो बौद्ध एवं जैन परम्परा में अर्हत् भी निश्चित उद्देश्य को लेकर ही इस धरा पर अवतीर्ण होते हैं। इतना अवश्य है कि अवतार का अवतरण पुनः पुनः होता रहता है, वे देव तत्त्व से मनुष्य या पशु के रूप में अवतीर्ण होते हैं, किन्तु अर्हत् उसी भव में मुक्त हो जाते हैं एवं अर्हत् मनुष्य देह में ही हो सकते हैं, अन्य देह में नहीं। उनका पुरागमन नहीं होता। धर्म संस्थापना भी निश्चित प्रयोजन को लेकर ही होती है, इसी हेतु के लिए अवतार इस धरा पर आते हैं, हिन्दु परम्परा में अवतार जगत् की रक्षा के लिए पुनः पुनः पृथ्वी पर प्रगट होते हैं। जब-जब आसुरी तत्त्वों का आधिक्य हो जाता है,
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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