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________________ (69) 2. हृदय परिवर्तन का दूसरा सूत्र है-अभय का विकास। अभय के बिना अहिंसा की कल्पना नहीं जा सकती। भय एक मौलिक मनोवृत्ति है। डर समूचे जीवन में व्याप्त है। आदमी को अतीत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों का भय सताता रहता है। स्मृति, चिन्तन और कल्पना करके वह डरता है। डर मनुष्य के जीवन में क्षण-क्षण में साथ चलता है, किन्तु मनुष्य ने विकास किया अभय का। उसने इस दिशा में इतना विकास किया कि न उसे काल का भय रहता है, न देश का भय रहा और न मृत्यु का भय रहा। साधना करते-करते इतना विकास हो जाता है कि भय शब्द समाप्त हो जाता है। आदमी ने उन सांपों के साथ, हिंस्र पशुओं के साथ भी मैत्री स्थापित की जो आदमी को मारकर खा जाते थे। जिनका नाम सुनते ही आदमी कांप उठता था। इस प्रकार मैत्री का विकास किया, अभय का विकास किया। जैसे-जैसे जीवन में अहिंसा, अभय और मैत्री का विकास होता है, सभी प्राणी मित्र बन जाते हैं। __ मनुष्य ने अपनी साधना और अभय की वृत्ति के द्वारा ऐसी तरंगों को निर्मित किया है, तरंगों को फैलाया है कि उनकी सन्निधि में भूखे पशु भी आक्रमण नहीं करते और भयाक्रान्त पशु भी आक्रामक नहीं होते। वे स्वयं अभय बनकर पास में आकर बैठ जाते हैं। जब ध्यान की रश्मियाँ, राग-द्वेष मुक्त चेतना की रश्मियाँ विकीर्ण होती है, तब सामने वाले व्यक्ति का भय समाप्त हो जाता है। हमने अनेक चित्रों में शेर और बकरी को एक घाट पर साथ-साथ पानी पीते देखा है। यह अभय का प्रतीक है। यह प्रतीक है निर्मल चित्तधारा का। जब चित्त की धारा निर्मल होती है, वीतरागता का विकास होता है, तब ऐसी घटनाएं स्वाभाविक बन जाती है। ___ 3. हृदय परिवर्तन का तीसरा सूत्र है-सहिष्णुता का विकास। सहिष्णुता का फलित है-शान्ति / यदि सहिष्णुता नहीं तो शांति हो ही नहीं सकती। सहिष्णुता का अर्थ है-एक-दूसरे का सहन करना। भिन्न विचार, भिन्न आचार, भिन्न संस्कार, भिन्न रुचि, सब का कुछ भिन्न है। इतनी भिन्नता होने पर भी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व हो जाना। कहीं कोई कठिनाई नहीं होना। सर्दी-गर्मी, अधंकार और प्रकाश, आग-पानी सब एक साथ रह सकते हैं। विरोधी तत्त्वों का सहअवस्थान हो सकता है। अनेकान्त सिद्धान्त की सबसे बड़ी फलश्रुति है-विरोधी युगलों का एक साथ रहना। यही अनेकान्त की मूल आधारभूमि है। जब सहिष्णुता
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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