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________________ (67) प्राणीमात्र को धर्म मार्ग में, मोक्ष मार्ग में अग्रसर कर दूं। सर्व जीव कर्म बन्धनों से, दःख से: पीडा से मुक्त हो और शाश्वत सुख को प्राप्त करें। इन पदों की आराधना में अर्हत् की आत्मा इतना तल्लीन हो जाती है कि परहित में ही स्वहित अनुस्यूत होने लगता है। जगत् की सर्व आत्मा में आत्मदर्शित्व भाव समाविष्ट हो जाता है। यह आत्मसमदर्शित्वभाव ही परमात्मसमदर्शित्व भाव को पुष्ट करता है। आत्मसमदर्शित्व भाव-परमात्मसमदर्शित्व भाव आत्मसात् तभी हो सकते हैं जब सर्व जीवों के प्रति वातसल्यभाव हो। सर्व जीवों के हित की चिंता हो, आत्मौपम्य दृष्टि हो। यह आत्मसमदर्शित्व भाव तब तक प्रगट नहीं होता, जब तक जीवमात्र के प्रति शुभ की कामना, हित की भावना, मंगल कल्याण की कामना जागृत न हो। इस प्रकार सकल जीवराशि के जीवों को परममित्र स्वरूप मानकर उनके सब दुःखों का नाश हो, वे परम सुखके भोक्ता बने इत्यादि भावना के द्वारा 'सवि जीव करुं शासन रसी-ऐसी भावदया मन उल्लसी' यह भावना भावित करके अर्हत्/तीर्थङ्कर नामकर्म पद का उपार्जन करते हैं। क्योंकि अर्हत् की आत्मा में सर्व जीवों के प्रति हित का भाव परम पराकाष्ठा पर स्थिर हुआ है। इसी कारण अर्हत् को सार्व कहा जाता है। यह हिताशय भाव समत्व की प्राप्ति के लिए सर्वजीव हिताशय है। सच्चिदानन्द प्राप्ति हेतु सर्वजीवहिताशय है। स्व पर भेद नाशक हिताशय भाव है। वैषम्य नाशक सर्वजीव हिताशय है। कषाय मोचक, अध्यवसाय (परिणाम-विचार) विशोधक है, शान्तिप्रदायक है। स्वार्थनाशक तथा तिरस्कारभाव नाशक होकर, समता स्वरूप, विश्ववात्सल्यभाव होने से सर्व जीव विषयक स्नेह परिणाम, मैत्री को पुष्ट करता है। यह स्नेह परिणाम ही लोकोत्तर दया को प्रगट करता है। जीवमात्र के प्रति करुणा का प्रागट्य ही हित के लिए कल्याण के लिए प्रेरित करता है। सब जीवों के प्रति उनकी दृष्टि परमात्म स्वरूप होने से मंगलकारी अर्हत् पद प्राप्ति स्वरूप तीर्थङ्कर नामकर्म का बंध होता है। इस प्रकार ये पद अर्हत् पद की योग्यता में सहायक होते हैं। (6) लोकमंगल की उदात्त भावना जैसा कि गत पृष्टों में हमने देखा कि अर्हत् परमेष्ठी के अणु अणु में प्राणीमात्र के प्रति भाव दया के परिणाम उल्लसित होते हैं। वे परिणाम उनके लोक कल्याण की भावना के परिचायक है। दुःख से संतप्त इस संस्कार को कैसे उबारा
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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