SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (46) वट्टकेराचार्यकृत मूलाचार ग्रन्थ में भी इस नियुक्ति का ही अनुगमन किया है। किन्तु षट्खण्डागम के धवला टीकाकार वीरसेनाचार्य ने इस पूजा अर्थ को भी विशेषता प्रदान करते कहा, 'अतिशय पूजार्हत्वाद्वार्हन्तः' अर्थात् अतिशय पूजा के योग्य होने से अर्हन्त संज्ञा प्राप्त होती है। महापुराण', नयचक्रवृत्ति, 'चारित्रपाहुड' टीका में भी नियुक्ति के अर्थ को अनुलक्ष किया है। धवला के अर्थ में यहाँ अतिशय ने भी स्थान पा लिया। क्योंकि पूजा योग्य भी अनेक पात्र हो सकते हैं। किन्तु जो अतिशय पूजनीय हो, वहाँ इस अर्थ ने विराम लिया है। यहाँ पर परमात्मा के प्रति निष्ठा व्यक्त होती है। आवश्यकसूत्र पर श्रीमद् हरिभद्रसूरि कृत वृत्ति में इसकी बहुत ही सुन्दर व्याख्या की है-'अर्ह पूजायाम्', अर्हन्तीति 'पचाद्यच्' कर्तरि अर्हाः, किमर्हन्ति? वन्दननमस्करणे, तत्र वन्दनं सिरसा, नमस्करणं वाचा, तथार्हन्ति पूजासत्कारं, तत्र वस्त्रमाल्यादिजन्या पूजा, अभ्युत्थानादिसम्भ्रमः सत्कारः तथा सिद्धिगमनं चाहन्ति / अथवा अर्हन्तीत्यर्हन्त। अर्थात् वन्दन शिरझुका कर, नमस्कार कहकर किया जाता है। किन्तु पूजा तथा सत्कार वस्र मालादि जन्य, सत्कार आदर के साथ सन्मुख जाने से होता है। इन सबके साथ विशिष्टता तो 'सिद्धिगमन' की है। जो सिद्धि की ओर गमन करने को उद्यत हैं उनको अर्हत् कहा जाता है। सिद्धहेमशब्दानुशासन व्याकरण के कर्ता श्रीहेमचन्द्राचार्य ने अपने व्याकरण ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही इस पद की व्युत्पत्ति की है। उनकी स्वोपज्ञ मध्यमवृत्ति के अनुसार "अहमित्येतदक्षरं परमेश्वरस्य परमेष्ठिनो वाचकं मङ्गलार्थं शास्त्रस्यादौ प्रणिदध्महे / / अर्ह मह पूजायाम्। अर्ह / अर्हति / अष्टप्रातिहार्यपूजामित्यहँ ।"'अः' (2) इत्युणादिसूत्रेण अ। 'पृषोदरादयः' (3.2.155) इति सानुनासिकत्वं कला बिन्दुः? अथवा अर्हमिति मान्तोऽप्यस्ति अव्ययम् सिः 'अव्ययस्य' (3.27) इति लुप्। अहँ इति अक्षर पदं परमेश्वरस्य जगन्नाथस्य एकस्यैव परमेष्ठिनोहद्भगवतो वाचकम्। अहँ कारेण अर्हन्नेव ध्यायते इति भावः।" 1. मूलाचार 505, 562 2. धवला 1.1.1., 1.44.6. 3. महापुराण 33/186 4. नयचक्रवृत्ति 272 5. चारित्र पाहुड टी. 1.31.5. 6. आव.वृत्ति. 921. पृ. 406 7. सिद्धहेमशब्दानुशासन 1.1.
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy