SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (40) सर्वप्रथम हम आचाराङ्ग को देखें। आचराङ्ग में यद्यपि अर्हत् संज्ञा से तो एक ही बार उल्लेख हुआ है, तथापि जिन, केवली, भगवान, सर्वज्ञ-सर्वदर्शी आदि पर्यायों के माध्यम से अनेकशः उच्चरित हुआ है। जो एक बार उल्लेख हुआ है उसमें भी त्रिकालवर्ती अर्हत् का अस्तित्व तथा एक समान उनकी प्ररूपणा का निर्देश किया गया है। प्रथम श्रुतस्कंध के सदृश द्वितीय श्रुतस्कंध में भी इसी भांति उल्लेख प्राप्त होता है। किन्तु इसके अतिरिक्त अर्हत् महावीर तीर्थङ्कर को लोकान्तिक देव अभिनिष्क्रमण हेतु विज्ञप्ति करते हैं, ऐसा भी उल्लिखित है। यह आचार प्रधान ग्रन्थ है, अतः स्वाभाविक है कि इसमें आचार-मात्र का कथन है। दूसरा आगम है सूत्रकृताङ्ग-इस अंग सूत्र में अर्हत् की प्रक्रिया में पूर्वभूमिका का निर्देश है तथा उसकी प्रथम शर्त इंगित की है : अध्यात्म दोषों का वमन। कषाय-जयी होना इसकी अनिवार्य शर्त है। इसी के साथ अर्हत् के स्वरूप में वे अनुत्तर ज्ञानी व अनुत्तरदर्शी होते हैं, यह भी वर्णित किया गया है। तृतीय अंग सूत्र ठाणाङ्ग में अर्हत् किन कर्मों का वेदन करते हैं तथा घाती कर्म चतुष्टय को क्षीण कर देते हैं, उल्लेख किया है। यहाँ अपेक्षा भेद से वर्गीकृत करके अवधिज्ञानी, मनःपर्यव ज्ञानी तथा केवलज्ञानी को भी अर्हत् कहा है। स्नातक तथा सर्वाधिक ऋद्धिमान अर्हत् परमेष्ठी है। वे सर्वभाव से क्या क्या जानते देखते हैं, इस प्रकार उनके असीम ज्ञान-दर्शन को भी वर्णित किया है। इसके साथ ही अर्हत् परमेष्ठी की आयु, शरीर, अवगाहना, वर्ण, सम्पदा, पंचकल्याणकों के नक्षत्र, गण-गणधर, निर्वाण आदि प्रसंगों का प्रचुरता से उल्लेख इसमें प्राप्त होता है। देवेन्द्र-देवगण, देवियाँ आदि दिव्यशक्तियों का आगमन भूलोक में अर्हत् परमेष्ठी के जन्म, प्रव्रज्या, केवलज्ञान, निर्वाण आदि महोत्सवों में विशेष रूप से होता है, यह भी यहाँ दृष्टिगत होता है। ___ अर्हत् प्रभु का अवर्णवाद-निन्दा से होने वाले फल प्राप्ति का भी यहाँ टंकण किया है। जीव सुलभबोधि और दुर्लभबोधित्व कैसे प्राप्त करता है? यह भी इसमें आलेखित है। अर्हत् परमेष्ठी के वंश, उनका समय, धर्मपुरुष होना, किस प्रकार की योनि से उनका उत्पन्न होना, चातुर्याम-पंचमहाव्रत रूपी धर्म का उपदेश देना, उल्लेख किया गया है। इस प्रकार विभिन्न उद्धरणों के माध्यम से
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy