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________________ (318) 'पंचवस्तुक' में इसके गौरव को वृद्धि करते हुए कथन है कि 'ओमिति परमेष्ठिपंचकमाह:- कथमिति चेदुच्यते-'अ' इति अर्हत् आद्याक्षरम्' 'अ' इत्यशरीरस्य सिद्ध वाचकस्याद्याक्षरम् 'आ' इत्याचार्यस्याद्यक्षरम्, 'उ' इत्युपाध्यायस्याद्याक्षरम् 'म' इति मुनीत्यस्याद्याक्षरम्-अ अ आ उ म् इति, ततः सन्धिवशात्, ओमिति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् एवमुक्तिः।" यहाँ इसके हार्द को ग्रन्थकार ने खोलते हुए कहा है कि जैन परम्परा में इसकी निष्पत्ति अर्हत, अशरीर (सिद्ध), आचार्य, उपाध्याय, मुनि के आद्य अक्षर से अर्थात् अ आ आ उ म् ओंम इस प्रकार हुई है। ग्रन्थकार ने साथ ही इसे सर्व विद्याओं का आद्यबीज, सकल आगमों का उपनिषदरूप, समस्त विघ्नों का विघातक और मनोरथों की पूर्ति करने वाला कल्पपादप के सदृश स्वीकार किया आचार्य शुभचन्द्र ने इसी प्रकार इसकी गौरव गरिमा का गुणगान करते हुए कहा है कि “ओंकार से ही निर्मल शब्दात्मक ज्योति प्रकट हुई है और इसी के द्वारा परमेष्ठी का वाच्य-वाचकभाव है, अर्थात् पाँच परमेष्ठी वाच्य हैं और ओंकार उनका वाचक है।"३ जैन दर्शन में वाच्य और वाचक का कथंचित् भेदाभेद संबंध स्वीकार किया गया है। इस प्रकार इस सिद्धान्त के अनुसार ओंकार की आराधना पंचपरमेष्ठी की आराधना है। उपर्युक्त अवतरणों से यह भलीभांति विदित हो जाता है कि ओंकार किसी सम्प्रदाय विशेष का नहीं वरन् सभी परम्पराओं की अमूल्य निधि है। इसी कारण इसकी निष्पत्ति भी अनेक प्रकार से की गई है। जैन परम्परा में इसकी निष्पत्ति पंच परमेष्ठी (अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु) के आद्याक्षर के रूप में स्वीकार गई है। जैन मान्यता परम-पद में स्थित देव और गुरुओं को पाँच प्रकार से स्वीकार करती है। इनके आद्य अक्षर की सन्धि करने पर (अ + अ + आ + उ + म्) ओम् शब्द निष्पन्न होता है। इस प्रकार पंचपरमेष्ठी का अन्तर्भाव ॐ में हो जाता है। 1. पंचवस्तुक, नवकारसारथवणं गा. ८-मानतुंगसूरि उद्धृत नमस्कार स्वाध्याय भाग-१ (प्राकृत) पृ. 263) 2. वही 3. ज्ञानार्णव 28, 31-32 4. महानिशीथ पत्र 2, वहद् द्रव्य संग्रह टीका पृ. 182
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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