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________________ (260) 'जिनकल्प' कहा जाता है। वे सामान्यतया नग्न एवं पाणिपात्र होते हैं तथा एकाकी विचरण करते हैं। वे अधिकतर खड़े रहते हैं। यदि बैठने का प्रसंग उपस्थित हो जाये तो वे कुक्कुडु, गोदुग्ध आदि आसन से बैठते हैं, जिससे कि भूमि का स्पर्श न हो।' जिनकल्पी प्रतिदिन लंचन करते हैं। वह तृतीय प्रहर में भक्त-पान ग्रहण करते हैं न उससे पहले और न बाद में। विहार में भी चतुर्थ प्रहर होते ही वे रूक जाते हैं। 2. स्थविरकल्पी ___ जो संयम मार्ग में पूर्ण स्थिर है और संयम साधना में अस्थिर, अन्य साधकों को इहलोक और परलोक संबंधी हानि बताकर श्रमणधर्म से च्युत होने पर कि न इस लोक में शान्ति है, न परलोक में ही, इस प्रकार अस्थिर मानस वाले साधक को जो ज्ञान -दर्शन-चारित्र में स्थिर करते हैं, वे स्थविर हैं। स्थविर का कल्प स्थविरकल्प, वे मुनि स्थविर कल्पी कहलाते हैं। बाह्य आचार की अपेक्षा स्थविर कल्पी का आचार कम उग्र और शिथिल प्रतीत होता है। किन्तु जिनकल्पी केवल स्वयं का उपकार करते हैं, उसका संघ के साथ कोई संबंध नहीं। जबकि स्थविकल्पी अपना भी उपकार करते हैं और साथ ही संघ का भी उपकार करते हैं। इसलिये स्थविरकल्पी का भी अपना गौरव है। स्थानांग सूत्र में साधु के पाँच प्रकार निर्देश किये हैं। 1. पुलाक 2. बकुश 3. कुशील 4. निर्ग्रन्थ 5. स्नातक 1. पुलाक निःसार धान्यकणों की भांति जिसका चरित्र निःसार हो, उसे पुलाकनिर्ग्रन्थ कहते हैं। ये मूलगुण तथा उत्तरगुण में परिपूर्णता प्राप्त न करते हुए भी वीतराग प्रणीत आगम से कभी भी विचलित नहीं होते। इनके दो भेद हैं-1. लब्धि पुलाक 2. प्रतिषेवापुलाक। संघ-सुरक्षा के लिए पुलाकलब्धि का प्रयोग करने वाला लब्धिपुलाक कहलाता है तथा ज्ञान आदि की विराधना करने वाला प्रतिषेवापुलाक कहलाता है। पुलाक साधु पाँच प्रकार के होते हैं - 1. ज्ञानपुलाक-स्खलित, मिलित आदि ज्ञान के अतिचारों का सेवन करने वाला ज्ञान पुलाक है। 1. (भा. वृ. 1424) 2. (वही) 3. (स्थानांग 5 184) 4. वही 5.185
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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