SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (254) 2. औद्देशिक इस कल्प का अर्थ यह है कि साधु को उसके उद्देश्य से, निमित्त से लाये गये अथवा खरीदे गये आहार, पेय, वस्त्र, पात्र, उपगरण तथा निवास ग्रहण नहीं करना चाहिये।' अशन-वसन और भवन आदि अग्राह्य और असेव्य है। प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के शासन का साधु किसी भी श्रमण के उद्देश्य से बने आहार को ग्रहण नहीं कर सकते, जब कि अन्य 22 तीर्थकरों के साधु दूसरे साधु के निमित्त बने आहारादि को ग्रहण कर सकता था, वह उसके लिए ग्राह्य हो जाता था। औद्देशिक आहार ग्रहण करने का निषेध इसलिए है कि इससे त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा का अनुमोदन होता है। 3. शय्यातरपिण्ड कल्प ___ जो साधु को शय्या (वसति-उपाश्रय-स्थान) देता है, उसको शय्यातर कहा जाता है, अर्थात् वह गृहपति जिसके मकान में मुनि ठहरते हैं। उस शय्यातर का आहार आदि साधु के लिए अग्राह्य होता है। 4. राजपिण्ड कल्प __राजा के यहाँ का भोजन राजपिण्ड है। राजकीय भोजन साधु के लिए त्याज्य होता है। प्रथम व अन्तिम तीर्थकर के साधुओं के लिए इसका निषेध है, अन्य 22 तीर्थंकरों के साधु को नहीं।' 5. कृतिकर्म कृतिकर्म का अर्थ है अपने से संयमादि में ज्येष्ठ एवं सद्गुणों से श्रेष्ठ मुनियों का सत्कार व सम्मान करना। उनके आने पर खड़े होकर बहुमान करना। उनकी हितशिक्षाओं को श्रद्धा से नतमस्तक होकर स्वीकार करना। यह कल्प सार्वकालिक 1. दशवै. चूर्णि (अगस्तयसिंह),- हारिभद्रीयावृत्ति 116 2. दश. अ. ५.उ.१ गा.५१-५२ 3. दशवैकालिक अ. ५.उ.१. गा. 51-52 4. निशीथभाष्य पृ. 131 5. (क) दश.वृत्ति (हारि.) 117, चूर्णि. अगस्त्यसिंह एवं जिनदास 113 6. वही पृ. 112-113 7. कल्पसमर्थन गा. 2 पत्र 2 8. निशीथचूर्णि भाग-२ पृ. 187-188 9. कल्प समर्थन गा. 13
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy