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________________ . (251) है। संयम से आस्रव का निरुन्धन होता है और आस्रव के निरुन्धन से तृष्णा का अन्त हो जाता है। तृष्णा के अन्त से अनुपम उपशम भाव उत्पन्न होता है और उससे प्रत्याख्यान, विशुद्ध बनता है। उपशमभाव की विशुद्धि से चारित्रधर्म प्रकट होताहै। चारित्र से कर्म निर्जीर्ण होते हैं और उससे केवलज्ञान-दर्शन होता है, फलस्वरूप शाश्वत मुक्ति सुख प्राप्त होता है। गीता में प्रत्याख्यान के समान त्याग का विवेचन उपलब्ध है। यह त्याग भी तीन प्रकार का है। 1. सात्त्विक-शास्त्रविधि से नियम किया हुआ कर्त्तव्य-कर्म करते हुए उसमें आसक्ति और फल का त्याग कर देना। ___ 2. राजस-सभी कर्म दुःख रूप हैं, ऐसा समझकर शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों का त्याग करना राजस त्याग है। 3. तामस-नियत कर्म का त्याग करना योग्य नहीं है, इसलिए मोह से उसका त्याग करना तामस त्याग है। वास्तव में प्रत्याख्यान अमर्यादित जीवन को मर्यादित व अनुशासित बनाता है। यह त्याग के संबंध में ली गई प्रतिा या आत्मनिश्चय है। __ इस प्रकार षट् आवश्यकों का विधान प्रायः सभी परम्पराओं में प्रकारान्तर से वर्णित है। जैन परम्परा में इन आवश्यकों का जो क्रम रखा गया है, वह कार्यकारण की श्रृंखला पर अवस्थित है तथा पूर्ण वैज्ञानिक है। साधक को सर्वप्रथम समता को प्राप्त करना आवश्यक है। विषमभाव से निवृत्ति हो जाने पर समत्व भाव धारण करने वाला वीतरागी महापुरुषों के गुणों का संकीर्तन करके उनके उदात्त गुणों को जीवन में उतारता है। इसलिए सामायिक के पश्चात् चतुर्विंशतिस्तव का क्रम है। तब साधक भक्ति में विभोर होकर उनको वंदना करता है। वंदन करने वाले सरल आत्मा कृत दोषों की आलोचना करता है, अत:वंदन के पश्चात् प्रतिक्रमण आवश्यक का निरूपण है। उसके पश्चात् कायोत्सर्ग से तन मन की एकाग्रता की जाती है। स्थिरवृत्ति के अभ्यास के लिए प्रत्याख्यान किया जाता है। इसलिये आवश्यकों में प्रत्याख्यान छठा है। इस प्रकार यह षडावश्यक आत्म निरीक्षण, आत्मपरीक्षण और आत्मोत्कर्ष का श्रेष्ठ उपाय है। 1. आव. नि. 1594 2. वही 1595 3. वही 1596 4. गीता 18.4, 7-9
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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