SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . (237) 15. विनय अर्थात् नम्रता युक्त वर्तन करे। 16. जप, तप, क्रिया अनुष्ठान में सदा वीर्य एवं पराक्रम स्फुरित करे। 17. सदा वैराग्यवंत रहे। 18. निज आत्मगुणों (ज्ञान-दर्शन-चारित्र) को रत्न के खजाने के सदृश बंदोबस्त करके सुरक्षा करे। 19. पार्श्वस्थ अर्थात् शिथिल हुए साधु के परिणामों से सावधान रहते हुए सदैव परिणामों से वृद्धि करता रहे। 20. उपदेश एवं प्रवृत्ति से सदा संवर में पुष्टि होती रहे। 21. निज आत्म-दुर्गुणों को दूर करने में प्रयत्नशील रहे। 22. काम (शब्द-रूप संबंधित), भोग (गंध-रस और स्पर्श संबंधित) के संयोग मिलने पर भी लुब्ध न होवे। 23. नियम, अभिग्रह, त्याग वैराग्य की हमेशा यथाशक्ति वृद्धि करे। 24. उपधि अर्थात् वस्त्र, पात्र, शिष्य आदि का अंहकार न करे। 25. मद, विषय, कषाय, निद्रा एवं विकथा इन पाँच प्रमाद का त्याग करे। 26. मितभाषी होवे एवं समयोचित क्रियाएँ करें। ध्यावे। 28. मन, वचन, काया का सदा शुभ कार्य में प्रवर्तन करे। 29. मरणांतिक कष्ट आने पर भी परिणाम की धारा धर्म में स्थिर रखें। 30. सर्व संग का त्याग करे। ___31. गुरु के समक्ष आलोचना, निंदा करे अर्थात् अपने गुप्त पापों का प्रकाश करके प्रायश्चित ले और अपनी आत्मा की निंदा करे। 32. आहार और शरीर का भी त्याग करके समाधिभाव में दोहोत्सर्ग करे। इस प्रकार इन बत्तीस योगों में साधु सदैव प्रयत्नशील रहे, एवं संग्रह करके सदैव हृदय में धारण करे। यथाशक्ति इन परिणामों में पुरुषार्थ करता हुआ प्रवृत्ति करता रहे।
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy