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________________ (202) जिन्होंने रागद्वेष को जीत लिया है, वह जिन, तीर्थंकर, सर्वज्ञ, भगवान्, आप्त हैं और उनका उपदेश एवं वाणी आगम हैं। (उनमें वक्ता के साक्षात् दर्शन एवं वीतरागता के कारण दोष की संभावना नहीं होती और न पूर्वापर विरोध तथा युक्ति-बाध होता है। ___ आवश्यक नियुक्ति में कथन है कि 'तप-नियम-ज्ञान रूप वृक्ष के ऊपर आरूढ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान भव्यात्माओं के विबोध के लिए ज्ञानकुसुमों की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धि पट में उन सकल कुसुमों को झेलकर प्रवचनमाला गूंथते हैं। ___ इस प्रकार तीर्थङ्कर केवल अर्थरूप में उपदेश देते हैं और गणधर उसे ग्रन्थबद्ध या सूत्रबद्ध करते हैं। इस प्रकार गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं। अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर, प्रत्येक बुद्धादि करते हैं। इस प्रकार जिन आगमों का निर्माण करते हैं वे अंगप्रविष्ठ तथा अन्य, अतिरिक्त, शेष सभी रचनाएँ अंगबाह्य हैं / अंगप्रविष्ठ तथा अंगबाह्य के अतिरिक्त पूर्व श्रुत' की रचना द्वादशांगी से भी पूर्व की गई है। चौदह पूर्व ___ जैन वाङ्मय में ज्ञानियों की दो प्रकार की परम्पराएँ प्राप्त होती है। 1. पूर्वधर 2. द्वादशांग वेत्ता। पूर्वो में समग्र श्रुत या परिणेय समग्र ज्ञान का समावेश माना गया है। जैन आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण समवायांग में मिलता है। उसमें भी आगम साहित्य का पूर्व और अंग के रूप में विभाजन किया है। पूर्व संख्या की दृष्टि से चौदह थे और अंग बारह। आचार्य अभयदेवसूरि के अनुसार द्वादशांगी से प्रथम 'पूर्व' साहित्य निर्मित किया गया था। इसी से उसका नाम 'पूर्व' रखा गया। किन्तु कुछ चिन्तक इसे पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर की श्रुतराशि मान्य करते हैं। इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती होने के कारण यह 'पूर्व' कहा गया। अतः यहाँ इतना तो स्पष्टया कहा जा सकता है कि 'पूर्वो' की रचना द्वादशांगी से पहले हुई है। 1. अनुयोगद्वार सूत्र 42., नंदी 40-41, बृहत्कल्पभाष्य गा. 88 2. आव. नि. गा.८९-१९० 3. आव. नि. गा. 192. विशेषा. भा. 550, धवला भाग 1.9.64,72 4. विशेषाभा. 550, तत्त्वार्थ भा. 1.20, मूलाचार 5.80, जयधवला पृ. 153 5. आव. मलय. वृत्ति पत्र ४८६.सवायाङ्ग 14 समवाय 7. समवायांग-समवाय 136 8. समवा. वृत्ति, पत्र 101, नंदीसूत्र (विजयदानसूरि संशोधित चूर्णी पृ. 1 11 अ) 9. नंदी मलय, वृत्ति. पृ. 240, षड्संडागम. प्र. 1 पृ. 114
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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