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________________ (181) उनका अभिमत है कि स्वयं के आत्मगुणों की वृद्धि करना और दूसरे के दोषों का निगूहन करना-ये दोनों उपबृंहण के ही अंग है।" (6) स्थिरीकरण-जो संयम से, धर्म व न्यायमार्ग से शिथिल हो रहे हैं, विचलित हो रहे हैं उसमें धैर्यता, स्थिरता उत्पन्न करना, उसे प्रेरणा करना स्थिरीकरण है। (7) वात्सल्य-मोक्ष में सहायक धर्म व धार्मिकों में वत्सल भाव रखना, उनकी यथायोग्य प्रतिपत्ति करना, साधार्मिक, श्रमणों को आहार, वस्त्र आदि देना। गुरु, ग्लान, तपस्वी, शैक्ष तथा अन्य आए हुए श्रमणों की विशेष सेवा करना वात्सल्य है। (8) प्रभावना-शब्दों को अवधारण करके जो प्रवचन की प्रभावना करते हैं, वह प्रभावना है। (जिससे चतुर्विध संघ (तीर्थ)-साधु-साध्वी, श्रावक व श्राविका की उन्नति हो, उस प्रकार का प्रयत्न करना। साथ ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से अपनी आत्मा को प्रभावित करना और जिन शासन की महिमा व गरिमा में वृद्धि करना प्रभावना है। दर्शनाचार के ये आठों ही अंग सत्यावस्था को प्रकाशित करते हैं। जब तक शंकादि दोषों से मुक्त नहीं होगा उसे सत्य तथ्य का ज्ञान नहीं होगा। आचार्य परमेष्ठी इन आठों ही अंगों को धारण करके अन्य संघादि को सत्यतत्त्व का प्रकाश करते हैं। 3. चारित्राचार ___ आचार्य तीसरे चारित्राचार का पालन करते हैं। चारित्राचार का अर्थ है, समितिगुप्ति रूप आचरण। समिति का अर्थ है सम्यक् प्रवर्तक / अहिंसा संवलित प्रवृत्ति समिति तथा जो निवर्तन करे उसे गुप्ति कहते हैं। समिति-गुप्ति के आठ प्रकार हैं। 5 समिति-ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदानमंडभत्तनिक्षेपणासमिति, उच्चारप्रस्त्रवणखेल जलसिंघाण पारिष्ठापनिकी समिति / 1. नि. भा. 28, प्रव. सारो. 268 वृत्ति पत्र 64, पुरुषा 28, रत्नकरण्डश्रावकाचार 1.16 2. नि. भा. 29, उत्तरा बहवृत्ति 567 3. नि.भा. 31 बृहवृत्ति 567 4. उत्तरा. बृहद्वृत्ति 567 5. (निशीथ भाष्य गा. ३५-परिधाण जोगजुत्तों पंचहि समितीहिं तिहिं य गुत्तीहिं / एस चारित्ताचारो अट्ठविहो होति नायव्वो।।। 6. (उत्तराध्ययन 24. अध्य, तत्त्वार्थ सूत्र 9.5)
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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