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________________ (132) सृष्टिकर्ता मानते हैं, वे भी बंधनों का नाश करके मुक्त हुए मुक्तों से उन्हें भिन्न स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार उत्तरकालीन योग जो ईश्वर को तो नित्यमुक्त मानते हैं, वे भी अन्य केवलियों से भिन्न मानते हैं। किन्तु जैन तो नित्यमुक्त या सृष्टिकर्ता स्वरूप ईश्वर को स्वीकारते ही नहीं है। मात्र जो बन्धनों का नाश कर मुक्त को ही ईश्वर, सिद्ध मानते हैं। हिन्दु पुराणकार जो नित्यमुक्त सृष्टिकर्ता ईश्वर मानते हैं, वे अवतार को विशेष रूप से स्वीकारते हैं। इस प्रकार अनेकशः भिन्नता है जो ईश्व-अवतार से सिद्धात्मा को पृथक् करती है। यहाँ संक्षेप में उस भिन्नता का दिग्दर्शन कराया गया है। सिद्धों के स्वरूप से ईश्वर का स्वरूप पूर्णतया भिन्न है। जिसका हमने अवलोकन किया। वस्तुतः मुक्तात्मा के रूप में सिद्ध परमेष्ठी की अवधारणा का निरूपण जैन परम्परा अनूठे रूप में प्रस्तुत करती है। जो ईश्वर, अवतार, ब्रह्म, बुद्ध आदि से भिन्नत्व लिए हुए है। 6. 'सिद्ध की ऐतिहासिकता' (क) हिन्दु एवं बौद्ध परम्परा में हिन्दु परम्परा एवं बौद्ध परम्परा में 'सिद्ध' का उल्लेख शब्द-अपेक्षा से दृष्टिगत नहीं है। सिद्ध' यह जैन परम्परागत मान्य शब्द है जो कि मुक्त जीवों के लिए प्रयुक्त हुआ है / मुक्त जीवों के लिए मौलिक शब्द ही सिद्ध है। अतः शब्दतः सिद्ध स्वरूप हिन्दु परम्परा एवं बौद्ध परम्परा को ग्राह्य नहीं है। जैन परम्परा सिद्ध के अतिरिक्त बुद्ध, मुक्त, पारगत आदि पर्यायों को सिद्ध अर्थ में स्वीकार करती है, किन्तु रूढ एवं प्रचलित सिद्ध ही है। ___ वास्तव में हिन्दु परम्परा एवं बौद्ध परम्परा में मुक्त शब्द शब्दतः मान्य नहीं किया गया। हिन्दु परम्परा में 'ब्रह्म' एवं बौद्ध परम्परा में 'निर्वाण' शब्द ने इस स्वरूप को धारण किया है। ब्रह्म का स्वरूप हिन्दु परम्परा में ब्रह्म के स्वरूप में दो प्रकार के ब्रह्म का प्रतिपादन है। 1. सगुण ब्रह्म 2. निर्गुण ब्रह्म ऋग्वेद में ब्रह्म शब्द का प्रयोग प्रार्थना के अर्थ में हुआ है। परन्तु उपनिषदों में आते-आते इस शब्द का अर्थ बदल गया। वह उसके लिए प्रयोग में आने लगा
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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