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________________ (124) का शिथिल होना है। विश्व में दृश्यमान बौद्धिक विभिन्नता का कारण इस कर्म की भिन्न-भिन्न अवस्था है। इस कर्म का सम्पूर्ण क्षय होने पर केवलज्ञान (पूर्णप्रत्यक्षज्ञान) प्रकट होता है। आँख पर पट्टी बाँधने स्वरूप ज्ञानावरणीय कर्म है। 2. दर्शनावरण-यह कर्म दर्शन शक्ति को आवृत्त करता है। ज्ञान और दर्शन में विशेष भेद नहीं है। प्रारम्भ में होने वाले सामान्य आकार के ज्ञान को 'दर्शन' कहते हैं। किसी मनुष्य या वस्तु के दृष्टिगोचर होने पर पहले उसका सामान्य प्रकार से जो भान होता है, वह दर्शन है और पीछे उसका विशेष प्रकार से बोध होना, वह ज्ञान है। निद्रा, अन्धत्व, बधिरत्व आदि इस कर्म के फल हैं। प्रतिहार्य (चौकीदार) के समान दर्शनावरणीय कर्म है। 3. वेदनीय-वेदनीय कर्म का कार्य सुख दुःख का अनुभव कराना है। सुख का अनुभव कराने वाले को सातावेदनीय और दुःख का अनुभव कराने वाले को असातावेदनीय कर्म कहते हैं। मधु लिप्त खड्ग के समान वेदनीय कर्म है। 4. मोहनीय कर्म-जो मोह उत्पन्न करे वह मोहनीय कर्म है। स्त्री पर मोह, पुत्र पर, मित्र पर तथा इष्ट एवं रोचक वस्तुओं पर, इस प्रकार जड़ एवं चेतन वस्तुओं पर मोह होना मोहनीय कर्म के परिणाम हैं। मोह में अंध व्यक्ति को कर्तव्य-अकर्तव्य का भान नहीं रहता। जिस प्रकार शराबी व्यक्ति को वस्तु का वास्तविक स्वरूप समझ नहीं आता, वह उन्मत्त होकर उत्पथगामी बनता है। उसी प्रकार मोहान्ध जीव तत्त्व को तत्त्वदृष्टि से समझ नहीं सकता और अज्ञान एवं झूठी समझ में गोते लगाता रहता है। मोह की लीला अपार है। उसके चित्र-विचित्र अनन्त उदाहरण संसार में सर्वत्र दिखाई देते हैं। आठों कर्मों में यह कर्म आत्मस्वरूप को हानि पहुँचाने में सबसे अधिक और मुख्य भाग लेता है। इस कर्म के दो भेद हैं (1) तत्त्वदृष्टि को आवृत्त करने वाला 'दर्शनमोहनीय कर्म' और (2) चारित्र का अवरोधक ‘चारित्रमोहनीय कर्म।' मोहनीय के नाश से ही जीव सम्यक्त्व प्राप्त करके, संसार से परिनिवृत्त हो सकता है। ___5. आयुष्य-इस कर्म के चार भेद हैं-1. देवता का आयुष्य 2. मनुष्य का 3. तिर्यञ्च का 4. नारक जीवों का आयुष्य। कारागृह में जिस प्रकार पैरों में जंजीर पड़ी हो, तब तक मनुष्य बंधन से छूट नहीं सकता। उसी प्रकार देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नरक इन चार गतियों के जीव जब तक आयुष्य पूर्ण न हो, तब तक वहाँ से छूट नहीं सकते।
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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