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________________ (111) 7. तहा सिद्धाणि परमाणंदमहू सव महाकल्लाणनिरूवमसोक्खाणि, णिप्पंकसुक्कज्झाणाइ अचिंतसत्तिसामत्थओ, सजीववीरिएणं जोगनिरोहाइणा महापयत्तेण त्ति सिद्धा' -परम आनंद रूप, महोत्सव रूप, महाकल्याणरूप, निरूपम सुख, अचल शुक्लध्यान आदि की अचिन्त्य शक्ति से सामर्थ्य से जीव के परामक्रमपूर्वक योग का निरोध करने रूप जिन्होंने महाप्रयत्न से सिद्ध किया है, अतः वे सिद्ध हैं। ___8. अथवा अट्ठपयारकम्मक्खएण वा सिद्ध' -आठ प्रकार के कर्मों को क्षय करने पर जो सिद्ध हुए हैं वे सिद्ध हैं। 9. अथवा दीहकालरयं जंतु-कम्म से सियमट्ठहा। सियं धंतं ति सिद्धस्स सिद्धत्तममुवजायइ।- प्रवाह की अपेक्षा से दीर्घकाल की स्थितिवाले जो बांधे हुए आठ प्रकार के कर्मों को भव्य जीवने ध्यान रूपी अग्नि द्वारा भस्मीभूत किया है। अथवा जीव का सर्व कर्म (संसारनुबंधी होने से सित अर्थात् अशुभ अथवा सित यानि जीव ने ग्रहण किया हुआ, व्याप्त हुआ या संश्लिष्ट हुआ अथवा आठ प्रकार से विशेषित किया हुआ या क्षय किया हुआ वह शेषित कहलाता है। जिस प्रकार अग्नि के द्वारा लोहे का मल भस्म किया जाता है उसी प्रकार तप के द्वारा बांधा हुआ कर्म जिसका भस्म हुआ वह सिद्ध कहलाता है। 10. कर्म प्रपञ्च निर्मुक्त-जो कर्म के प्रपञ्च से मुक्त हो। 11. अपगतसकल कर्ममले-सकल कर्म चला गया है वह सिद्ध / 12. अशेष द्वन्द्व रहिते - द्वन्दों क्लेशों से रहित इस प्रकार सिद्ध शब्द के अनेक व्युत्पति-नियुक्ति परक अर्थ उपलब्ध होते हैं। अनेक अर्थों से समन्वित सिद्ध शब्द में जैन परम्परा कर्मक्षय सिद्ध को स्वीकार करती है। मूलाचार में सिद्ध शब्द की व्युत्पति उपर्युक्त प्रकार से ही की है किन्तु उसका उदाहरण दिया है कि लोहकार जिस प्रकार अग्नि में लोहे को तपाकर स्वच्छ करता है उसी प्रकार बावीस परीषहों रूपी अग्नि के द्वारा कर्मबंध को ध्वंस 1. महानिशीथ सूत्र उपधान पद अ. 3 2. महानिशीथ उपधान सूत्र संदृब्ध अ.३ 3. विशेषावश्यक भाष्य गा. 3029 4. विशेषावश्यकभाष्य-२ गा. 3033-3037, नंदीसूत्र पृ. 54 5. नंदी 54. 6. चं पं पाहु, दशा, भ. दश. 7. सूत्र 1.1.4.
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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