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________________ (8) दोनों परम्पराओं में प्रारम्भ से ही अवकाश नहीं रहता। इन दोनों परम्पराओं में मनुष्य (आत्मा)-आध्यात्मिक मनुष्य-साधना के शिखर पर पहुँचा मनुष्य ही देवाधिदेव या परमात्मा का स्थान ग्रहण करता है, किन्तु कर्ता या फलदाता के रूप में नहीं वरन् आदर्श उपास्य के रूप में ही। वैदिक परम्परा में सर्जनव्यापार ऋग्वेदकाल से ही दो प्रकार का माना गया है। 1. कोई एक समर्थ देव अपने से भिन्न ऐसे उपादान द्रव्य में से सृष्टि की रचना करता है, यह हुई भेदमूलक दृष्टि। 2. दूसरी ओर मल में ही कोई तत्त्व ऐसा है कि स्वसंकल्प और तपबल के द्वारा उपादान के बिना ही अपने में से ही इस चराचर सृष्टि का सृजन करता है, यह हुई अभेद दृष्टि। __ जैन और बौद्ध परम्परा उपर्युक्त दोनों वैदिक दृष्टियों को स्वीकार न करके यह मानते हैं कि अचेतन और भौतिक तत्त्व, एवं चेतन सत्त्व या जीव स्वतंत्र तत्त्व है, उनका कोई सर्जन नहीं करता। उनमें भी जो चेतन-सत्त्व हैं, वे ऐसी शक्ति धारण करते हैं, जो उस शक्ति के द्वारा अपना ऊर्ध्वगामी आध्यात्मिक विकास साध लेते हैं। ये पूर्णशुद्ध आत्मा ही परमात्म-पद को धारण करते हैं। ये पूर्ण शुद्ध सत्त्व समान हैं। ये अनेक भी हो सकते हैं। इस प्रकार दोनों परम्पराओं में परमेश्वर, पुरुषोत्तम या परमात्मा अर्थात् वासना और बंधनमुक्त सत्त्व। विवर्त कैवलाद्वैतवादी ब्रह्मवाद और जैन परम्परा में यह अन्तर है कि कैवलाद्वैती ब्रह्मवाद में पारमार्थिक तत्त्व के रूप में एकमात्र सच्चिदानन्द ब्रह्म ही है। तात्पर्य यह है कि दृष्टिगत जीवभेद तो मात्र औपाधिक है। शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का अथवा जीव-ब्रह्म के ऐक्य का वास्तविक ज्ञान होते ही जीव का औपाधिक अस्तित्व विलय हो जाता है और देश-काल की उपाधि से परे शुद्ध परब्रह्म का ही अनुभव रहता है। जबकि जैन परम्परा में जीवों का वैयक्तिक भेद वास्तविक है। जीवों के अतिरिक्त कोई ब्रह्मतत्त्व नहीं। उपनिषदों में ब्रह्मतत्त्व का जो पारमार्थिक सच्चिदानन्द स्वरूप है, वह पारमार्थिक स्वरूप जैन दृष्टि से प्रत्येक जीवात्मा में अन्तर्निहित है, किन्तु वह आवरणों से आवृत्त हैं। जो जीवात्मा योगसाधना द्वारा इन आवरणों का समूलोच्छेद करता है, वह विशुद्ध ब्रह्म स्वरूप हो सकता है। इस प्रकार जैन दृष्टि से जो जीवात्मा निरावरण होती है, वह समान भाव में परब्रह्म स्वरूप है। यहाँ कैवलाद्वैती वेदान्त की अभेददृष्टि और जैन परम्परा की भेददृष्टि में आकाशपाताल जितना अन्तर होने पर भी परमात्म स्वरूप में अद्भुत साम्य यह है कि तत्त्वतः सच्चिदानन्द ब्रह्म एक हो या अनेक किन्तु सच्चिदानन्दता में सादृश्यता है।
SR No.023544
Book TitlePanch Parmeshthi Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year2008
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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