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________________ अरहन्त परमेष्ठी 24. पूर्वबद्ध वैर वाले देव, असुर, नाग, यक्ष, गन्धर्व आदि भगवान् के पादमूल में प्रशान्तचित्त होकर धर्मश्रवण करते हैं। 25. अन्य तीर्थ वाले प्रावचनिक विद्वान्, भी भगवान् को नमस्कार करते हैं। 26. अन्य तीर्थ वाले विद्वान् भगवान् के पादमूल में आकर निरूत्तर हो जाते हैं। 27. भगवान् जहां-जहां विहार करते है, वहां-वहां पच्चीस योजन तक ईतिअर्थात् धान्य को नष्ट करने वाले चूहे आदिप्राणियों की उत्पत्ति नहीं होती और भीति अर्थात् भय भी नहीं होता। 28. महामारी (संक्रामक बीमारियां) नहीं होती। 26. अपनी सेना उपद्रव नहीं करती। 30. दूसरे राजा की सेना भी उपद्रव नहीं करती। 31. अतिवृष्टि नहीं होती। 32. अनावृष्टि नहीं होती। 33. अकाल नहीं पड़ता। 34. भगवान् के विहार से पूर्व उत्पन्न हुई औत्पातिकमाविया भी शीध्र ही शांत हो जाती हैं। इन अतिशयों में से दूसरे से लेकर पांचवें तक ये चार अतिशय भगवान् के जन्म से ही होते हैं। बारहवां तथा इक्कीसवें से चौतीसवें तक-ये पन्द्रह अतिशय कर्मक्षय से उत्पन्न होते हैं, तथा शेष पन्द्रह अतिशय देवकृत होते हैं। (ज) तीर्थंकर की दिव्यध्वनि : तीर्थंकर के मुख से निकलने वाली कल्याणकारी वाणी और धर्मोपदेश का नाम ही दिव्यध्वनि है। तीर्थंकर की ध्वनि सामान्य ध्वनि नहीं होती, वह कुछ अधिक विशिष्ट होती है। इसीलिए उनकी ध्वनि को दिव्यध्वनि कहा जाता है। 1. विस्तार के लिए दे०-समवायांगवृति, सूत्र 58, 56
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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