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________________ परहन्त परमेष्ठी 4. चंवर : तीर्थंकर भगवान् के दोनों ओर श्वेत चंवर डुलाए जाते हैं। 5. सिंहासन : जहां-जहां भगवान् पधारते हैं वहां-वहां पहले से ही अशोक वृक्ष के नीचे स्फटिक मणि के बने हुए एक पादपीठ वाले सिंहासन की रचना की जाती है जिस पर भगवान् पभासन में बैठकर सद्धर्मोपदेश देते हैं। 6. भामण्डल: तीर्थंकर के मस्तक के कुछ पीछे एक भामण्डल होता है जो सूर्यमण्डल के समान प्रकाशमान होता है तथा जिससे दशों दिशाओं का अन्धकार विनष्ट हो जाता है। 7. देवदुन्दुभि : जिस स्थान पर तीर्थकर भगवान् विराजमान होते हैं, वहां देवगण दुन्दुभि बजा-बजा कर उद्घोषणा करते हैं जिसे सुन कर भव्य प्राणी वहां आकर भगवान् के उपदेश को सुनकर अपना कल्याण करते हैं। 8. श्वेत आतपत्र, छत्र एवं चंवर : देवगण सदैव तीर्थंकर भगवान् के सिर पर तीन छत्र धारण कर रखते हैं। वे ही देव भगवान् को दोनों ओर से चंवर डुलाए रखते हैं। इन सबसे यह सूचित होता है कि वे भगवान् श्री ही त्रैलोक्य के स्वामी हैं। (ग) चौंतीस अतिशय : समवायांग सूत्र में तीर्थंकर के निम्न 34 अतिशय बतलाए गए हैं 1. तीर्थंकरों के सिर के बाल, दाढ़ी मूछ एवं रोम और नख नहीं बढ़ते, वे सदैव एक ही स्थिति में रहते हैं। 2. उनका शरीर सदैव रोग तथा मल से रहित होता है। 3. उनका मांस तथा खून गाय के दूध के समान श्वेत वर्ण का होता है। 4. उनका श्वासोच्छवास नील कमल के समान सुगन्धित होता है। 5. उनका आहार और नीहार दृष्टिगोचर नहीं होता। 6. उनके आगे-आगे आकाश में धर्मचक्र चलता है। 1. समवाओ, 34.1
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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