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________________ 45 अरहन्त परमेष्ठी आचार्य अकलंक देव की दृष्टि में भी जब चैतन्य के प्रतिबन्धक कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय हो जाता है, तब वह सत्त्व (=विशुद्ध आत्मा) समस्त अर्थों को जानने वाला बन जाता है। यदि उस सर्वज्ञ आत्मा के अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञानन माना जाए तब वहसूर्य,चन्द्रआदिज्योतिर्ग्रहों का तथाभूत-भविष्यत् आदिदशाओं का ज्ञाता, द्रष्टा एवं वक्ता कैसे हो सकेगा? ज्योतिर्ज्ञान उपदेश अविसंवादी और यथार्थ देखा जाता है। अतः यह मानना ही समुचित है कि उसका यथार्थ उपदेश अतीन्द्रियार्थ के बिना नहीं हो सकता जैसे सत्यस्वप्न दर्शन इन्द्रियादि की सहायता के बिना ही भावी राज्यलाभ-सुख आदि का यथार्थ स्पष्ट ज्ञान कराता है तथा विशद है, उसी तरह सर्वज्ञ का ज्ञान भीभावी पदार्थों में संवादक और स्पष्ट होता है। सर्वज्ञ के अस्तित्व की सिद्धि में इस तरह कोई भी बाधक प्रमाण नहीं है। अतः उसकी निर्बाध सत्ता सिद्ध हो जाती है तथा यही स्वस्वभाव को प्राप्त सर्वज्ञ ही तीनों लोकों के अधिपतियों द्वारा पूजा जाता हुआ स्वयंभू भी कहलाता है। च. अरहन्तः तीर्थकर : यद्यपि जैनधर्म में तीर्थंकर की अवधारणा अत्यधिक प्राचीन है, फिर भी प्राचीन जैन-ग्रन्थों के अवलोकन से ऐसा लगता है कि इसका एक क्रमिक विकास हुआ है। आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध एवं सूत्रकृतांग जैसे जैनों के प्राचीनतम ग्रन्थों में हमें तीर्थंकर शब्द ही नहीं मिलता है। जबकि वहां अरहन्त शब्द विद्यमान है। सबसे पहले उत्तराध्ययनसूत्र में महावीर और पार्श्व के विशेषण के रूप में धर्म-तीर्थंकर शब्द प्रयुक्त हुआ है और यहां यह पद जिन तथा अरहन्त का पर्यायवाची है परन्तु परवर्ती जैन-वाङ्मय में कुछ अन्तर उपलब्ध होता है। अरहन्त शब्द व्यापक है तो तीर्थंकर पद व्याप्य / अरहन्त की भूमिका में तीर्थंकर अरहन्त भी आ जाते हैं और दूसरे सब केवली अरहन्त भी। तीर्थंकर और केवली अरहन्तों में आत्म-विकास की दृष्टि से कुछ भी अन्तर नहीं है। 1. सर्वार्थग्रहसामर्थ्यचैतन्यप्रतिबन्धिनाम्। / कर्मणां विगमे कस्मात् सर्वानर्थान्न पश्यति / / न्यायविनिश्चय, श्लो० 3.24 2. धीरत्यन्तपरोक्षेऽर्थे न चेत्पुसां कुतः पुनः / ज्योतिर्ज्ञानाविसंवादः श्रुताच्चेत्साधनान्तरम् / / सिद्धिविनिश्चयटीका, पृ०५२६ 3. अस्ति सर्वज्ञः सुनिर्णीतासम्भवद्बाधकप्रमाणत्वात् सुखादिवत् / वही, पृ.५३२ 4. तह सो लद्धसहावो सवण्हू सबलोगपदिमहिदो। भूदो सयमेवादा हवदि सयंभु त्ति णिद्दिट्ठो / / प्रवचनसार, 1.16 5. जिणे पासे त्ति नामेण अरहा लोगपूइओ। संबुद्धप्पा य सव्वन्नू धम्मतित्थयरे जिणे / / उ० 23.1 तथा दे०२३.५
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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