SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अरहन्त परमेष्ठी है। ऐसे इस केवलज्ञान से केवलज्ञानी तीनों कालों सहित इस समस्त लोक और अलोक को एक साथ (युगपत्) जानता है।' केवल का अर्थ है-असहाय / केवलज्ञानी इन्द्रियों की सहायता से रहित है, इसी से इसका नाम केवल है। यह ज्ञान राग आदि मल से रहित होने से शुद्ध है | व्याघात से रहित है, किसी अन्य ज्ञान के इसमें बाधा न डालने से यह अव्याबाध ज्ञान कहलाता है। निश्चयात्मक होने से यह सन्देहरहित होता है। श्रुतादि सभी अन्य ज्ञानों में प्रधान होने से यह उत्तम है। सब द्रव्यों और पर्यायों में प्रवर्तमान होने से मतिज्ञान आदि के विषयों की तरह उसका विषय अल्प नहीं है, तथा एक आत्मा में स्वयं ही होने से एक है / सम्पूर्ण आत्मस्वरूप होने से सकल है। अनन्त प्रमाण वाला होने से अनन्त है। यह केवलज्ञान विनाशरहित होने से अविनाशी कहलाता है एवं विचित्र द्रव्य पर्यायरूप से प्रतिभासमान होने से वह चित्रपट की तरह विचित्र नानारूप है। अरहन्त भगवान् ऊपर वर्णित केवलज्ञान से संयुक्त होते हैं / अतः उन्हें सर्वव्याप्त, सर्वदर्शी एवं सर्वज्ञ स्वीकार किया गया है। (ङ) अरहन्तः सर्वज्ञ: जैनों के मत में कर्मों का नाश करके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से सर्वथा विशुद्ध आत्मा ही सर्वज्ञ होता है। आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं कि जो सब कुछ जानता है, रागादि दोषों को जीत चुका है, तीनों लोकों में पूजित है, वस्तुएं जैसी हैं उन्हें उसी प्रकार प्रतिपादित करता है, वही परमेश्वर अरिहन्तदेव सर्वज्ञहै। वह त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त द्रव्यों एवं उनके समस्त पर्यायों को एक साथ जानता है। सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को जैसे हम पृथक्जन अनुमान से जानते हैं, वैसे ही वे उन्हें प्रत्यक्ष रूप से 1. तत्तो णंतरसमए उप्पज्जदि सव्वपज्जयणिवधं / केवलणाणं सुद्धं तध केवलदसणं चेव / / अव्वाबाधादमसदिद्धमुत्तमं सव्वदो असंकुडिदं / एयं सयलमणंतं अणियत्तं केवलं णाणं / / चित्तपडं व विचित्तं तिकालसहिदं तदो जगमिणं सो। सव्वं जुगवं पस्सदि सबमलोगं च सव्वत्तो।। भग० आ०.गा० 2067-66 / / 2. सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः। यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वर : / / (हेमचन्द्र). योगशास्त्र, 2.4 / / 3. जं तक्कालियमिदरं जाणादि जुगवं समंतदो सव्वं / अत्थ विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं / / प्रवचनसार, 1.47
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy