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________________ 41 अरहन्त परमेष्ठी किया गया है। दिगम्बर और श्वेताम्बर कर्म-ग्रन्थों में भूल-कर्म के आठ भेदों में तो कोई अन्तर नहीं पाया जाता, परन्तु उनके अवान्तर भेदों और उनके स्वरूप में किञ्चित् अन्तर अवश्य पाया जाता हैं। (ई) कर्मक्षय का क्रमः कर्मों के क्षय का भी एक विशेष क्रम है। जब यह आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र से सम्पन्न होता है तब आस्रव से रहित होने के कारण उसके नवीन कर्मों की सन्तति कट जाती है तथा जब यह आत्मा तप आदि कर्म-क्षय के कारणों के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करने लगता है तब संसार का बीजभूत मोहनीयकर्म पूर्ण रूपसे क्षय (नष्ट) हो जाता है। तदनन्तर अन्तराय,ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय ये तीनों कर्म भी एक साथ निखिल रूप से नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार गर्भ के नष्ट होने पर बालक मर जाता है उसी प्रकार मोहनीय कर्म के नष्ट होने पर उक्त कर्म भी स्वतः क्रमशः नष्ट हो जाते हैं / ऐसा कर्मक्षयी आत्मा ही सर्वज्ञ, केवली एवंअरहन्त कहलाता है। (घ) केवलज्ञान: अरिहन्त भगवान् केवलज्ञानी होते हैं / यह केवलज्ञान क्या है ? यहां केवलज्ञान का स्वरूप बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि 'केवली अर्थात् एक मात्र ज्ञान का धारी, ज्ञानी मूर्त-अमूर्त 3, चेतन-अचेतन, स्वज्ञेय तथा परंज्ञेय समस्त पदार्थों को देखने और जानने वाला होता है। उसका यह ज्ञान अतीन्द्रिय है और प्रत्यक्ष होता है। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अनुसार केवलज्ञान का एक मात्र विशुद्ध, अनन्त एवं असहाय (उत्पत्ति में अन्य किसी की सहायता से रहित) होता है। ज्ञानावरण का विलय तथा उसके अवान्तर भेदों के मिट जाने पर एकमात्र ज्ञान और अशुद्धि के अंशमात्र के भी उसमें न रह जाने से वह केवलज्ञान कहलाता है-शुद्धम्-निर्मलम् सकेलावरणमकलंकविगमसम्भूतत्वात् / / इस ज्ञान के विषय में आचार्य नरेन्द्र सेन लिखते हैं कि केवलज्ञान के 1. दे०-कर्मप्रकृति, प्रस्तावना, पृ० 23-25 2. दे० त०सा०८.२०-२५ 3. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये चार द्रव्य अमूर्त (अरूपी) है, पुद्गल मूर्त है ।दे०-त०सू० 5.3-4 4. मुत्तममुत्तं दवं चेयणमियरं सगं च सव्वं च / पेच्छंतस्स दुणाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ / / नियम०, गा० 167 .. 5. केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अणन्तं च / विशेष०, गा०, 84 6. वही, वृति
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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