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________________ 32 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी प्रमादों' के नष्ट न होने के कारण वह चित्रल' आचरण वाला माना गया है। 7. अप्रमत्तसंयत गुणस्थानः जिस संयत सत्त्व के सम्पूर्ण व्यक्ताव्यक्त प्रमाद नष्ट हो चुके हैं, जो समग्र महाव्रत आदि मूलगुण तथा सदाचार (शील) से युक्त है, शरीर और आत्मा के भेदज्ञान में तथा मोक्ष के कारणभूत ध्यान में निरन्तर लीन रहता है, ऐसा अप्रमत्त मुनि जब तक उपशमक या क्षपक श्रेणी का आरोहण नहीं करता तब तक उसको स्वस्थान अप्रमत्त कहते हैं / इस स्थान का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है। यदि वह परविशुद्धि को प्राप्त कर लेता है तब ऊपर के गुणस्थानों में आरोहण करता है, अन्यथा पुनः छठे गुणस्थान में बना रहता है। 8. निवृत्तिबादर गुणस्थानः यहां बादर का स्थूल अर्थ किया गया है और इस गुणस्थान के जब साधक सत्त्व स्थूल कषाय की पूर्ण निवृत्ति करता है, तब वह आत्मा स्थूल रूप से क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि कषायों से मुक्त हो जाती है। इस स्थान में भिन्नसमयवर्ती जीव, जो पूर्व समय में कभी भी प्राप्त नहीं हुए थे, ऐसे अपूर्व परिणामों को धारण करते हैं। इसी कारण गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण भी मिलता है। इस गुणस्थान में भिन्न समयवर्ती जीवों में विशुद्ध परिणामों की अपेक्षा कभीभी सादृश्य नही पाया जाता, किन्तु एक समयवर्ती जीवों में सादृश्य और वैसादृश्य दोनों ही पाए जाते हैं। ध्यान रहे की यहां से दो प्रकार की श्रेणियां 1. चार विकथा-स्त्रीकथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा, अवनिपालकथा, चार कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ, पंच इन्द्रिय-स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, एक निद्राऔर एक प्रणय-ये पन्द्रह प्रकार के प्रमाद हैं। दे. वही, गा. 34 चित्रल से अभिप्राय है--चितकबरा--जहां दूसरे रंग का भी सद्भाव पाया जाए। यहां इसका अभिप्राय है दोषमिश्रित। 3. वत्तावत्तपमादे, जो वसइ पमत्तसंजदो होदि।। सयलगुणसीलकलिओ, महब्बई चित्तलायरणो / / गो.जी., गा. 33 4. असङ्गतया समशत्रुमित्रता शीलमिति। धर्मबिन्दु, 4.267 5. णट्ठासेसपमादो, वयगुणसीलो तिमंडिओ णाणी। अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणो हु अपमत्तो / / गो. जी.. गा. 46 6. एदम्हि गुणट्ठाणे विसरिससमयट्ठियेहिं जीवेहिं। पुबमपत्ता जम्हा, होति अपुवा हु परिणामा / / वही, गा. 51 7. भिण्णसमयट्ठियेहिं दु, जीवेहिं ण होदि सव्वदा सरिसो। करणेहिं एक्कसमयट्ठियेहिं सरिसो विसरिसो वा / / गो. जी., गा., 52 ज०
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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