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________________ अरहन्त परमेष्ठी 19 पद योग्य अथवा समर्थ अर्थ में ही प्रयोग किया गया है। मनुस्मृति में इस पद का योग्य अर्थ में प्रयोग करते हुए पतित से उत्पन्न हुए पुत्र को पितृ--धन के प्राप्त करने के अयोग्य बतलाया है। गीता में अर्जुन कहते हैं- हे माधव ! अपने ही बान्धवधृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नही हैं, क्योंकि अपने ही कुटुम्बियों को मारकर हम सुखी नहीं हो सकेंगे।आदिकवि वाल्मीकि ने इस पद का समर्थ अर्थ में प्रयोग करते हुए सीता के तेज के लिए रावण को भस्म करने में समर्थ बतलाया है। पंचतन्त्र में आता है कि 'जो भृत्य राजा द्वारा ताड़ित और अपमानित होकर दण्ड पाता हुआ भी राजा का अनिष्ट नहीं चाहता, वही राजाओं के लिए योग्य है'। भट्टिकाव्य में भी राम विभीषण को योग्य अर्थ में अर्हत् को राज्ञा से ही विभूषित करते हैं / रावण के मरने पर राम कहते हैं कि 'हे विभीषण! तुम शोक मत करो, क्योंकि तुम ही राज्यभार संभाल कर इस रावण की मृत्यु के शोक दूर करने के योग्य हो। (4) बौद्ध वाड्.मय में अर्हत् : बौद्ध दर्शन में साधनारत व्यक्ति को भिक्षु कह कर पुकारा जाता है। इससे आगेसाधनासिद्ध पुरुष बोधिसत्त्व,अर्हत्, प्रत्येकबुद्ध और सम्यक् सम्बुद्ध कहलाता है। बोधि अर्थात् परम निर्मल ज्ञान की उपलब्धि में अहर्निश लगा हुआ सत्त्व बोधिसत्त्व कहलाता है। वह निरन्तर प्रकृष्ट ज्ञान की प्राप्ति की ओर अग्रसर रहता है। इसका एकमात्र लक्ष्य सम्यक-सम्बुद्ध बनना है / बोधिसत्व कीयहीअन्तिम कामना रहती है कि सौगत मार्ग के अनुष्ठान से जिस पुण्य संभार का मैंने अर्जन किया है, उसके द्वारा समग्र प्राणियों के दुःखों की शान्ति हो।' 1. नैवाहः पैतृकं रिक्थं पतितोत्पादितो हि सः / मनुस्मृति, 6.144 2. तस्मान्मार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् / स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव / / गीता, 1.37 3. न त्वां कुर्मि दशग्रीव भस्म भस्मार्हतेजसा / वाल्मीकि रामायण, 5.22.20 4. ताड़ितोऽपि दुरुक्तोऽपि दण्डितोऽपि महीभुजा। यो न चिन्त्यते पापं सः भृत्योऽर्हो महीभुजाम् / / पंचतन्त्र 1.67 5. त्वमर्हसि भ्रातुरनन्तराणि कर्तुं जनस्यास्य च शोकभड्गम् : भट्टिकाव्य, 1- 42 6 बोधौ सत्वम् अभिप्रायोऽस्येति बोधिसत्त्वः / ___भारतीय दर्शन. (उपाध्याय). पृ. 130 पर उद्धृत 7. एवं सर्वमिदं कृत्वा यन्मयासादितं शुभम् / तेन स्या सर्वसत्त्वानां सर्वदुःखप्रशान्तिकृत् / / बोधिचर्यावतार, 3.6
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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