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________________ विषय-प्रवेश प्राणियों के लिए वे ही एकमात्र शरण हैं | उनका स्वभाव मंगल रूप है, इनकी भक्ति करने वाला जीव अष्टकर्मों को नष्ट करके संसारचक्र से छूट जाता है तथा उसे अतुल सुख एवं सम्मान की प्राप्ति होती है-- झायहिपंचविगुरवे मंगलचउसरणलोयपरियरिए / णरसुरखेयरमहिए आराहणणायगे वीरे / / ' स्वामी समन्तमद्र बतलाते हैं कि पञ्चपरमेष्ठी कीभक्तिरेसम्यग्दर्शन की उपलब्धिहोती है और इसीसेमोक्ष की प्राप्तिभी होती है / आचार्य विद्यानन्दि का भी यही अभिमत है कि परमेष्ठी के प्रसाद से मोक्षलाभ होता है / आचार्य शिवार्य कहते हैं कि जो पुरुष पंचपरमेष्ठी कीभक्ति नहीं करता उसका संयम धारण करना ऊसर खेत में बीज बोने के समान निरर्थक है / पंचपरमेष्ठी की भक्ति के बिना यदि कोई अपनी आराधना करना भी चाहता है तब भी वह वैसा ही है जैसे कि बीज के बिना धान्य की और बादल के बिना जल की इच्छा करना। आगे इन्होंने ग्लानिरहित भाव से पंचपरमेष्ठी की भक्ति के लिए प्रेरित करते हुए कहा है कि 'संसार के भय से उत्पन्न हुए मिथ्यात्व, माया और निदान शल्यों से रहित तथा सुमेरु की भांति निश्चल जिन भक्ति जिसकी है, उसे संसार काभय नहीं हैं / अतः संसारी जीव को एक मात्र जिनभक्तिहीदुर्गति से बचाने में,पुण्यकर्मों को पूर्ण करने में और मोक्षपर्यन्त सुखों को देने में समर्थ है। ऐसे ही भक्त को विद्या भी सिद्ध और सफल होती है। जो अरहन्त आदि में भक्ति नहीं करता उसको मोक्षबीज रूप रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र की उपलब्धिभी नहीं होती। आप्त-परमेष्ठी-शास्ता - स्वामी समन्तभद्र की दृष्टि में परमेष्ठी ही आप्त हैं और सर्वज्ञाता भी वही हैं क्योंकि आप्त निश्चय से वहीहो सकता है जिसके समस्तदोष उच्छिन्न हो गए हैं और समस्त विषयों में जिसे पूर्णतः परिस्फुट परिज्ञान प्राप्त है तथा 1. भावपाहुड, गा०, 122 2. सम्यग्दर्शनशुद्धः संसार-सरीर-भोग-निर्विण्णः / पंचगुरु-चरण-शरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः / / समीचीनधर्मशास्त्र, 7.12 3. श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः / आप्तपरीक्षा, गा०२ 4. तेसिं आराधणणायगाण ण करिज्ज जो णरो भत्ति / 'धत्तिं पि संजमं तो सालि' सो ऊसरे ववदि / / वीएण विणा सस्सं, इच्छदि सो वासमभएण विणा / आराधणमिच्छंतो, आराधणभत्तिमकरंतो / / भग० आ०, गा०७४८-४६ 5. दे०-वही, गा०७४३-४७
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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