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________________ 248 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी इस प्रकार साधु की 31 उपमाएं बतलायी गयी हैं जो कि साधु के स्वरूप पर समुचित प्रकाश डालती है। (ज) साधु-प्रशंसा एवं उसकी पूजा का फल : जैन वाङ्मय में साधु की पर्याप्त गुण गरिमा उपलब्ध होती हैं। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि यद्यपि इस संसार में कोई भी किसी का सहायक नहीं है, फिर भी संयम की साधना करने में हमें साधुओं से सहायता मिलती है / अतः हम सब साधुओं को नमस्कार करते हैं।' आचार्य कुन्दकुन्द बतलाते हैं कि जो मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपोविनय में सदा तत्पर रहते हैं तथा अन्य गुणी मनुष्यों के गुणों का वर्णन करते हैं, वे सदैव वन्दनीय हैं। आचार्य पुनः कहते हैं कि जो मुनि संयम सम्पन्न हैं तथा आरम्भ और परिग्रह से विरत हैं, वे सुर, असुर और मनुष्य सभी के लिए वन्दनीय हैं, नमस्कार करने योग्य हैं।' आचार्य पदमनन्दि भी लिखते हैं कि जिन मुनियों के ध्यान रूपी अग्नि से प्रज्वलित हृदय में त्रिलोकविजयी कामदेव को जलता हुआ देखकर मानों अत्यधिक भयभीत हुई कषायें इस प्रकार से नष्ट हो गई हैं कि उनमें वे फिर से प्रविष्ट नहीं हो सकती, वे मुनि जयवन्त होते हैं। ऐसे वे मुनि जो अमूल्य रत्न-स्वरूप सम्पत्ति से सम्पन्न होकर भी निर्ग्रन्थ के अनुपम पद को प्राप्त हुए हैं, और जो अत्यन्त शान्त होकर भी कामदेवरूप शत्रु की पत्नी को वैधव्य प्रदानकरने वाले हैं वे गुरु नमस्कार करने के योग्य होते हैं।' साधुओं की पूजा को जिन-पूजा के ही समान फलप्रद बतलाते हुए आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं कि इस समय इस कलिकाल में भरतक्षेत्र के भीतर यद्यपि तीनों लोकों में केवली भगवान् विराजमान नहीं हैं इसलिए मुनियों की 1. असहाइ सहायत्तं करंति मे संजमं करितस्स। एएण कारणेणं नमामिहं सव्वसाहूणं / आ०नि०,गा० 1013 2. सण-णाण-चरित्त तवविणये णिच्चकालसु पसत्था। एदे दु वंदणीया जे गुणवादी गुणधराणं / / दसणपाहुड़, गा०२३ 3. जो संजमेसु सहिओ आरंभपरिग्गहेसु विरओ वि। सो होइ वंदणीओ ससुरासुर माणुसे लोए।। सुत्तपाहुड़, गा०११ 4. स्मरमपि हृदि येषां ध्यानवनि प्रदीप्ते सकलभुवनमल्लं दह्यमानं विलोक्य / कृतभिय इव नष्टास्ते कषाया न तस्मिन् पुनरपि हि समीयुः साधवस्ते जयन्ति / / अनय॑रत्नत्रसंपदोऽपि निर्ग्रन्थतायाःपदमद्वितीयम्। अपि प्रशान्ताःस्मरवैरिवध्वा वैधव्यदास्ते गुरवो नमस्याः।। पद्मनन्दि पंचविंशति, श्लोक 1.57-58
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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