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________________ साधु परमेष्ठी 241 1. सल्लेखना आत्महनन नहीं : सल्लेखना आत्महनन नहीं है। यह तो मृत्यु के समीप में आ जाने पर प्रसन्नतापूर्वक शरीर का त्याग करने की प्रक्रिया मात्र है। तत्त्वार्थवृत्तिकार कहते हैं कि सल्लेखना में आत्मघात का दोष नहीं होता कारण कि प्रमत्तयोग से प्राणों के विनाश करने को ही तो हिंसा कहते हैं। जबकि सल्लेखना विचारपूर्वक की जाती है, उसमें राग-द्वेष आदिकारण नहोने से प्रमत्तयोग नहीं होता |अतःसल्लेखना करने में आत्मघात का दोष सम्भव ही नहीं है। जैसे कि पुरुषार्थसिद्धयुपाय में भी बतलाय गया है क हिंसा के मूल कारण कषाय हैं वे इस सल्लेखना में क्षीण हो जाते हैं / अतः आचार्य सल्लेखना को अहिंसा की पुष्टि के लिए सहकारी ही बतलाते हैं। आचारांगसूत्र में इसे काल-मृत्यु ही बतलाया गया है। 2. सल्लेखना के भेद : उत्तराध्ययनसूत्र में सल्लेखना के तीन भेदों का संकेत मिलता है। इनमें से किसी एक को स्वीकार कर शरीर छोड़ा जा सकता है। ये तीन भेद क्रिया को माध्यम बनाकर किए गए हैं जो निम्न प्रकार हैं (क) भक्तप्रत्याख्यान : गमनागमन के विषय में कोई नियम लिए बिना चारों प्रकार के आहार का त्याग करके शरीर का त्याग करना भक्त प्रत्याख्यान नामक सल्लेखना है। (ख) इंगिनीमरण : इंगित का अर्थ है-संकेत ।अतः गमनागमन के विषय में भूमि की सीमा * का संकेत करके चारों प्रकार के आहार का त्याग करते हुए शरीर का त्याग करना इंगिनीमरण है। (ग) पादोपगमन : पाद का अर्थ है-- वृक्ष / अतः पादोपगमन नामक सल्लेखना में चारों प्रकार के आहार का त्याग करके वृक्ष से कटी हुईशाखा की तरह एक ही स्थान पर निश्चल होकर शरीर का त्याग किया जाता है। 1. दे०-त०वृ०७.२२, पृ०२४६-४७ 2. नीयन्तेऽत्र कषाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम्। सललेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्धयार्थम् / / पुरुषार्थसिद्धयुपाय, गा० 176 3. तत्थावि तस्स कालपरियाए।आयारो, 8.7.128 4. अह कालंमि संपत्तं आद्यायाय समुस्सयं / सकाम-मरणं मरई तिण्हमन्नयरं मुणी।। उ० 5.32 5. विस्तार के लिए दे०-आयारो, 8.8.1-25 तथा उ० आ० दी०, पृ०२३८
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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