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________________ 216 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी त्रिवस्त्रधारी' निर्ग्रन्थों का उल्लेख है। इस प्रकार का विधान ग्रीष्म इत्यादि ऋतुओं के अनुसार है। जो भिक्षु तीन वस्त्र रखने वाला है उसे चौथे वस्त्र की कामना नहीं करनी चाहिए। जो वस्त्र उसे कल्प्य हैं उन्हीं की कामना करनी चाहिए। कल्प्य वस्त्र जैसे भी मिलें, उन्हें बिना किसी प्रकार का संस्कार किए धारण कर लेना चाहिए। इसीप्रकार का विधान द्विवस्त्रधारी एवंएक वस्त्र पारी के लिए भी है। भिक्षुणी के लिए चार वस्त्र-संघाटियां रखने का विधान है जिनका नाम इस प्रकार है-एक दो हाथ की, दो तीन-तीन हाथ की और एक चार हाथ की। दो हाथ की संघाटी उपाश्रय में पहनने के लिए, तीन-तीन हाथ की दो संघाटियों में से एक भिक्षाचर्या के समय पहनने के लिए होती है तथा दूसरी शौच जाने के समय पहनने के लिए होती है। चार हाथ की संघाटी समवसरण (धर्मसभा) में सारा शरीर ढकने के लिए होती है। यहां भिक्षुणियों के लिए जिन चार वस्त्रों के धारण करने का विधान बतलाया गया है उनका संधाटी (साड़ी अथवा चादर) शब्द से ही निर्देश किया गया है। टीकाकारों ने भी इनका उपयोग शरीर पर लपेटने अथवा ओढ़ने के रूप में ही बताया है। इससे प्रतीत होता है कि इन चारों वस्त्रोंका उपयोग विभिन्न अवसरों पर ओढ़ने के रूप में करना अभीष्ट है, पहनने के रूप में नहीं। अतः उन्हें साध्वियों के उत्तरीय वस्त्र के रूप में ही समझना चाहिए, उनमें अन्तरीयवस्त्र (लहंगा या धोती) का समावेश नहीं होता। 4. चौलपटक : क्षुल्ल होता है-छोटा / प्राकृत में क्षुल्ल को चुल्ल हो जाता है और उससे चौल बन गया है। पटक से अभिप्राय है-वस्त्र / अतः यह एक ऐसा छोटा वस्त्र होता है जो घुटनों तक पहना जाता हैं। 5. आसन: बैठने के लिए कपड़े बने हुए आसन का प्रयोग किया जाता है। 6. सदोरकमुखवस्त्रिका : यह एक श्वेत कपड़े की पट्टी होती है जिसे जैन श्वेताम्बर साधुहमेशा मुख पर बांधे रहते हैं। इससे सूक्ष्म जीवों की हिंसा टल जाती है। 1. वही, 8.4.43 2. वही, 8.4.43.46 3. वही, 8.5.62-65 4. वही, 8.6.85-88 5 दे०-(मेहता), जैन-धर्म-दर्शन, पृ० 523-24
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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