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________________ 212 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 10. उपसम्पदा: विशिष्ट ज्ञान आदि की प्राप्ति के लिए दूसरे आचार्य के पास जाना उपसम्पदा है। __ अपने गण में ज्ञान, दर्शन और चारित्र का विशेष प्रशिक्षण देने वाला कोई न हो, उस समय अपने आचार्य की अनुमति प्राप्त कर साधु किसी दूसरे गण के बहुश्रुत आचार्य की सन्निधि प्राप्त कर सकता है / लेकिन अकारण ही गण परिवर्तन नहीं किया जा सकता। _ 'उत्तराध्ययनसूत्र' में समाचारी के दस अंगों के साथ-साथ साधु के दिन एवं रात के सामान्य कार्यों के समय-विभाग का भी वर्णन किया गया है। (ख) साधु की दैनिक एवं रात्रिक चर्या : जैन मुनि के लिए समय की प्रामाणिकता पर बहुत जोर दिया गया है। उसे किसी कार्य के करने में क्षण मात्र का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए और जो कार्य जिस समय करने का हो, उसे उसी समय कर लेना चाहिए। साधु को दिन एवं रात को समान रूप से चार-चार भागों में बांट लेना चाहिए और यथानिर्दिष्ट कर्तव्यों को समयानुसार करना चाहिए। इस प्रकार के प्रत्येक भाग को पौरूषी (= प्रहर) कहा गया है। कालक्रम के अनुसार साधु की चर्या इस प्रकार है-दिन के समय प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में आहार, चौथे प्रहर में पुनः स्वाध्याय करना विहित है। इसी प्रकार रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, दूसरे में ध्यान, तीसरे में सोना और चौथे प्रहर में पुनः स्वाध्याय करना अपेक्षित है। प्रतिलेखना प्रथम और चतुर्थ प्रहर के आरम्भ में की जाती है | विहार और उत्सर्ग सामान्यतः चौथे प्रहर में किए जाते हैं, परन्तु आवश्यकतानुसार 1. बौद्धधर्म में उपसम्पदा संघ की सदस्यता हेतु विधि विशेष है। यह दीक्षा के उत्तरवर्ती / भाग का नाम है। यहां उपसम्पदा 20 वर्ष के दीक्षित व्यक्ति को दी जाती है / उपसम्पदा साधक संघ संचालन के महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया जाता है। जिसका उत्तरदायित्व वह सावधानी एव सफलतापूर्वक निभाता है। 2. समय गोयम! मा पमायए। उ० 10.1 3. काले कालं समायरे। वही, 1.31 4. दे०- वही, 26.11, 17 5. वही, 26.12, 13, 16, 16, 20 6. पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं झियायई। तइयाए भिक्खायरियं पुणो चउत्थीए सज्झाये।। वही, 26.12 7. पढमं पोरिसिं सज्झायं बीयं झाणं झियायई। तइयाए निद्दमोक्खं तु चउत्थी भुज्जो वि सज्झायं / / वही, 26.18 8. दे०-वही, 26.8, 21, 37, 38
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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