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________________ 202 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी त्याग कर देना चाहिए। (स) दीक्षा गुरु : दीक्षा लेते समय सामान्यतः दीक्षा देने वाले गुरु की आवश्यकता पड़ती है। साधक जिसके सान्निध्य में दीक्षित होता है,वह उसका दीक्षा गुरु' कहलाता है। यदि किसी दीक्षार्थी को इस प्रकार का दीक्षागुरु नहीं भी मिलता है तो वह इस योग्य होने पर स्वयं भी दीक्षा ले सकता है और तत्पश्चात् अन्य साधकों का दीक्षागुरु बनकर उन्हें भी साधुधर्भ में दीक्षित कर सकता है। राजकुमारी राजीमती पहले स्वयं दीक्षित होती है फिर अपने साथ बहुत से स्वजनों तथा परिजनों को प्रव्रजित कराती है। __ दीक्षा लेने पर आयु की गणना नहीं की जाती है। जो दीक्षा में बड़ा होता है वहीगुरु अर्थात् पूज्य होता है |अतःदीक्षालेने के पश्चात् वह अपने माता-पिता इत्यादि सभी कुटुम्बीजनों के द्वारा भी पूज्य हो जाता है।' (द) दीक्षा विधि : जब दीक्षार्थी माता-पिता आदि की अनुमति प्राप्त कर लेता है तथा माता-पिता इत्यादि परिवार के सदस्यों एवं सांसारिक विषयों के प्रति विरक्त हो जाता है तब वह दीक्षा ग्रहण के लिए तैयार समझा जाता है। सबसे पहले नाई को बुलवाकर दीक्षार्थी के चार अंगुल प्रमाण बालों को छोड़कर शेष सब बाल कटवा दिए जाते हैं। माता उन्हें एक बहुमूल्य वस्त्र में लेकर, गन्धोदक से साफ करके, सफेद वस्त्र में बाधंकर एक सुन्दर एवं मूल्यवान् डिब्बे में रख लेती है। उसके बाद उसे उत्तराभिमुख वाले सिंहासन पर बैठाकर स्नान कराया जाता है। पुनः चन्दन इत्यादि से शरीर पर अनुलेपन करके, उसे सुन्दर वस्त्र पहनाकर, आभूषण एवं पुष्पमालाओं से सजाया जाता है। इसके बाद उसे एक सजी हुई पालकी में बैठाकर नगर के बीचों बीच विभिन्न प्रकार के वाद्य-यन्त्रों की ध्वनि के साथ शोभायात्रा में निकाला जाता है। इस प्रकार से जाते हुए दीक्षार्थी को नगरवासी विभिन्न प्रकार से आशीर्वाद देते हैं और उसके लिए कल्याण सिद्धि की कामना करते हैं / इस प्रकार जाता हुआ वह अन्त में किसी उद्यान इत्यादि में पहुंच कर पालकी से नीचे उतर जाता है। 1. लिंगग्गहणे तेसिं गुरुत्ति पव्वज्जदायगो होदि। प्रवचनसार, 3.10 2. सा पव्वइया सन्ती पव्वावेसी तहिं बहुं। सयणं परियणं चेव सीलावन्ता बहुस्सुया / / उ० 22.32 3. नधर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते। कुमारसम्भव, 5.16 4. एवं ते रामकेसवा दसारा य बहू जणा। अरिट्ठणेमि वन्दित्ता अइगया बारगापुरि।। उ० 22.27
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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