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________________ 196 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी अपूर्ण होते हुए भी जो तात्त्विक निर्ग्रन्थता का अभिलाषी हो- भविष्य में वैसी ही स्थिति प्राप्त करना चाहता हो उसे भी व्यवहारिक दृष्टि से निर्ग्रन्थ ही कहा जाता है। अतः पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ बतलाए गए हैं। . (ग) साधु की पात्रता : साधु-जीवन का पालन करना बड़ा कठिन है। इस व्रत को धारण कर लेने पर व्यक्ति को अनेक परीषहों एवं उपसर्गों को सहन करना पड़ता है तथा चारित्र की पवित्रता का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। अतः साधु जीवन में प्रवेश पाने वालों से कुछ वैशिष्ट्य कीअपेक्षा की जाती है। इसी कारण से कुछ व्यक्तियों को साधु बनने के अधिकार से वंचित रखा गया है- जो आठ वर्ष से कम आयु वाला हो', अत्यन्त वृद्ध हो, नपुंसक हो, क्लीव हो, जड़ हो, व्याधि रोगग्रस्त हो, चोर हो, राज्य या शासक का अपराधी हो, उन्मत्त या पागल हो, अन्धा हो, दासी से उत्पन्न या मोल लिया हुआ हो, अत्यधिक कषायग्रस्त हो, (दुष्ट) स्नेह या अज्ञान से वस्तुज्ञानरहित हो (मूढ़), ऋणी हो, जाति, कर्म या शरीर से दूषित हो (जुंगित), धन आदि के लोभ से दीक्षा लेने वाला हो (अवबद्ध), अवधि सहित रखा हुआ हो (भृतक), माता-पिता की आज्ञा के बिना आया हुआ या अपहृत हो (निष्फेटिका), स्त्री सगर्भा हो अथवा उसका बालक स्तनपान करता हो तो ऐसी स्थिति में किसी को साधु अथवा साध्वी की दीक्षा नहीं दी जा सकती है। (अ) साधु दीक्षा में कुल, जाति एवं क्षेत्र की विशिष्टता : ___ आचार्य हरिभद्र सूरि ने साधुधर्म के योग्य अथवा अधिकारी के विषय में विशद चर्चा करते हुए बतलाया है किजोआर्य देश में उत्पन्न हो, विशिष्ट अनिन्द्य जाति- कुल-सम्पन्न हो, जिसका कर्ममल प्रायः क्षीण हो चुका हो, निर्मल बुद्धि वाला हो, संसार की असारता को समझने वाला हो, वैराग्यवान् हो, शान्तप्रकृति हो, अल्पकषाय वाला हो, जिसमें हास्य, रति आदि अल्पमात्रा में हों, कृतज्ञ हो, विनयवान् हो, पहले से ही बहुमान्य हो, द्रोह न करने वाला हो, 1. नो कप्पह निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा खुड्डगं वा खुड्डियं वा अणट्ठवा सजायं आवठ्ठावेतए वा संभूजितए वा / / व्यवहार सूत्र, 10.20 बाले बडढे नपंसे अ.कीवेजडडे अवाहिए / तेणे रायावगाही य, उन्मते य अदंसणे / / दासे दुढे य मूढे य अणते, जुंगिए इय / ओबद्धए य भयए, सेहनिफेडि या इय / / जे अट्ठारस भेया पुरिस्स, तहित्थियाए ते चेव / गुठ्विणी सबालवच्छा दुन्नि इमे हुंति अन्ने वि / / प्रवचनसारोद्धार, गा०७६०-६२
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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