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________________ 194 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी तथा जो जितेन्द्रिय, मोक्षगमन योग्य काया की आसक्ति से रहित है, वही श्रमण है। (3) भिक्षु : श्रमण के गुणों के साथ-साथ भिक्षु कहलाने योग्य भी वही है- जो अभिमानी नहीं है, विनीत है, विनम्र है, इन्द्रियों और मन पर नियन्त्रण रखता है, मोक्ष-प्राप्ति की जिसमें योग्यता है, काया के प्रति ममत्व का उत्सर्ग किए हुए है, नाना प्रकार के उपसर्गों और परीषहों को जीतता है, अध्यात्मयोग से शुद्ध चारित्र वाला है, संयममार्ग में तत्पर है, स्थित आत्मा है, ज्ञान सम्पन्न है और जो दूसरों (श्रावकों-गृहस्थों) के द्वारा दिए गए आहार आदि का सेवन करता है, वह भिक्षु है। (4) निर्ग्रन्थ : निर्ग्रन्थ में भिक्षु के गुणों के साथ-साथ जिन और अन्य गुणों को होना चाहिए वे गुण हैं- रागद्वेष से रहित होना, आत्मा केएकत्व का ज्ञान होना, वस्तु के यथार्थस्वरूपकापरिज्ञाता होना मुख्य है और जो प्रबुद्ध एवं जागृत है, जिसने आस्रवद्वारों के स्रोत को बन्द कर दिया है, जो सुसंयत है, पांच समितियों से युक्त है, शत्रु-मित्र पर समभाव रखता है, जो आत्मा के सच्चे स्वरूप का ज्ञाता है, जो समस्त पदार्थों के स्वरूप का ज्ञाता है, जिसने संसार के स्रोत अर्थात् शुभ-अशुभ कर्मों के आस्रवों को छिन्न-भिन्न कर डाला है, जो पूजा-सत्कार और लाभ की आकांक्षा नहीं करता, जो धर्मार्थी है, धर्मज्ञ है और नियाग अर्थात् मोक्षमार्ग को स्वीकार किए हुए है, अभिप्राय यह है कि जो समता से युक्त होकर मोक्षमार्ग में विचरण करने वाला है, दान्त है, मोक्ष के योग्य है एवं कायोत्सर्ग किए हुए है, वही निर्ग्रन्थ साधु है। एत्थ वि समणे अणिस्सिए अणिदाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च बहिद्धंच कोहंचमाणंचमायंचलोहंचपज्जंचदोसंच,इच्चेव जतो-जतोआदाण्णाओ अप्पणो पदोसहेऊततोततोआदाणाओपुव्वं पडिविरते सिआदंतेदविए बोसट्ठकाए समणेतिवच्चे / सूयगड़ो- 1, सू 16.4 2. एत्थ वि भिक्ख- अणुण्णते णावणते दंते दविए वोसट्ठकाए संविधुणीय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अज्फप्प जोगसुद्धादाणे उवट्ठिए ठिअप्पा संखाए परदत्त भोई भिक्खूत्ति वच्चे / वही, 16.5 एत्थ वि णिग्गंथ-एगे एगविदूबुद्धे संछिण्णसोए सुसंजए, सुसभिए, सुसामाइए, आतप्पवादपत्ते विऊ दुहओ वि सोयपलिच्छिण्णे णो पूया-सक्कारलाभट्ठी धमट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवण्णे समियं चरे दंते दविए वोसट्ठकाए निग्गंथेति वच्चे / सूयगड़ो- सू० 16.6
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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