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________________ 186 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी धारक एवं असंख्य देवों के अधिपति शक्रेन्द्र वजायुध से सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार सहस्र तर्क-वितर्क वाले तथा अनेकान्त-रूप वज के धारक असंख्य प्राणियों के अधिपति उपाध्याय भी सुशोभित होते हैं / 10. उदीयमान सूर्यसम : जैसे सहस्र किरणों से जाज्वल्यमान सूर्य अन्धकार को नष्ट करता हुआ आकाश में शोभा पाता है, उसी प्रकार उपाध्याय निर्मल ज्ञान सेअज्ञानरूपअन्धकार को नष्ट करते हुए संघरूप आकाश में सुशोभित होते हैं / 11. पूर्णिमाचन्द्रोपम : जैसे नक्षत्रों के परिवार से घिरा हुआ नक्षत्राधिपति चन्द्रमा पूर्णिमा को परिपूर्ण कलाओं से युक्त होता हुआ सुशोभित होता है, उसी प्रकार उपाध्याय भी जिज्ञासु साधकों के परिवार से घिरे हुए अपनी ज्ञानरूप कलाओं से सुशोभित होते 12. धान्यकोष्ठागारसम : जैसे चूहे आदि के उपद्रवों से रहित, सुदृढ़ कपाटों से युक्त तथा विविध धान्यों से परिपूर्ण कोष्ठागार (=अन्न भण्डार) सुशोभित होता है,वैसे ही निश्चय-व्यवहाररूप सृदृढ़ कपाटों से युक्त तथा अंग उपांग'ज्ञानरूपधान्यों से परिपूर्ण उपाध्याय सुशोभित होते हैं / 13. जम्बूसुदर्शनवृक्षसम : जैसे जम्बूक्षेत्र के अधिष्ठाता अनादृत देव का निवास स्थान जम्बू-सुदर्शन' वृक्ष अपने सुन्दर पत्ते, फूल, फल इत्यादि के कारण सब वृक्षों में श्रेष्ठ होता है, उसी प्रकार उपाध्याय अपने विशेष ज्ञान एवं गुणों के कारण सब साधुओं में श्रेष्ठ होते हैं / १४.सीतानदीतुल्य :जिस प्रकार नीलवन्त वर्षधर पर्वत से निकली हुई जल प्रवाह से परिपूर्ण, समुद्रगामिनी सीता नदी सब नदियों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार उपाध्याय भी अपने श्रुतज्ञानरूप सलिल से युक्त सर्वश्रेष्ठ होते हैं और नदियों से परिवृत सीता नदी की तरह श्रोताओं के बीच में सुशोभित होते हैं / 15. सुमेरुपर्वतसम : जैसे पर्वतराज सुमेरु पर्वत उत्तम औषधियों से सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार उपाध्याय भी साधुओं में अपनी अनेक लब्धियों से सुशोभित होते हैं उपांग ग्रन्थ बारह हैं-औपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाजीवाधिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बद्वीपप्रज्ञप्ति,चन्द्रप्रज्ञप्ति,निरयावलिका,कल्पावतंसिका,पुष्पिका,पुष्पचूला तथा वृष्णिदशा।। विस्तृत अध्ययन के लिए दे० - जैन साहित्य का बृहद इतिहास, भाग-२ शुभ अध्यवसाय तथा उत्कृष्ट तप, संयम के आचरण से तत्-तत् कर्म का क्षय और क्षयोपशम होकर आत्मा में जो विशेष शक्ति उत्पन्न होती है उसे लब्धि कहते हैं / ऐसीअट्ठाईस प्रकार की लब्धियां बतलायी गई हैं / विस्तृत जानकारी के लिए दे०-विशेष०, गा० 2462-66
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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