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________________ 177 उपाध्याय परमेष्ठी उसे सन्देह रहित, विशद और परिपक्व बनाना एवं उसका प्रचार करने का प्रयत्न करना, ये सभी स्वाध्याय में आते हैं। इसी आधार पर इसके पांच भेद हो जाते हैं-वाचना, प्रच्छना, अनूप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश'। 1. वाचना : फल की अपेक्षा न करके शास्त्र पढ़ना, शास्त्र का अर्थ कहना और अन्य जीवों के लिए शास्त्र तथा अर्थ दोनों का व्याख्यान करना वाचना है। २.प्रच्छना (पृच्छना)-शंका को दूर करने के लिए अथवा निश्चय को दृढ़ करने के लिए ज्ञात अर्थ को गुरु से पूछना प्रच्छना है। 3. अनुप्रेक्षा-जाने हुए अर्थ का एकाग्र मन से बार-बार अभ्यास या विचार करना अनुप्रेक्षा है। ४.आभ्नाय-सीखी हुई वस्तु का शुद्धिपूर्वक पुनः पुनः उच्चारण करना आम्नाय कहलाता है। 5. धर्मोपदेश-किसी भी प्रकार के फल की अपेक्षा न करके असंयम को दूर करने के लिए, मिथ्यामार्ग का नाश करने के लिए और आत्मकल्याण के लिए धर्म-कथा आदि का उपदेश करना धर्मोदेश है। (5) व्युत्सर्ग तपः सोने, बैठने और खड़े रहने के समय शरीर को इधर-उधर न हिलाकर व्यर्थ की चेष्टाओं का त्याग करते हुए, स्थिर रखना व्युत्सर्ग तप है। इसका दूसरा नाम कायोत्सर्ग भी है। त्याज्य वस्तु बाह्य और आभ्यन्तर के रूप में दो प्रकार की होती है। अतः व्युत्सर्ग के दो प्रकार बतलाए गए हैं-बाह्य उपधि का त्याग और आभ्यन्तर उपधि का त्याग। 1. बायोपधि-व्युत्सर्ग : धन,धान्य, मकान, क्षेत्र आदि बाह्य पदार्थो की ममता का त्याग करना बायोपधि-व्युत्सर्ग है। 2. आभ्यन्तरोपधि-व्युत्सर्ग : शरीर की ममता एवं काषायिक विकारों की तन्मयता का त्याग करना आभ्यन्तरोपधि-व्युत्सर्ग है। 1. वाचनाप्रच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशाः / / त०सू० 6.25 2. दे०-त०वृ० 6.25 3. सयणासणठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे। कायस्स विउस्सग्गो छट्ठो सो परिकित्तिओ।। उ० 30.36 4. बाह्याभ्यन्तरोपध्योः / / त०सू० 6.26 5. दे०-(संधवी). त०सू०, पृ० 221
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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