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________________ 164 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी का परिहार करता हैं उसे संयम कहते हैं। यह सतरह प्रकार का बतलाया गया (१-५)हिंसा, झूठ, चोरी,अब्रह्मचर्य और परिग्रहरूपाँच आस्रवों से विरत रहना। (6-10) स्पर्शन, रसन, घाण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँच इन्द्रियों को उनके विषयों की ओर जाने से रोकना अर्थात् उन्हें वश में करना। (11-14) क्रोध, मान,मायाऔरलोभ रूपचार कषायों का त्याग करना। (15-17) मन, वचन और काय की अशुभ प्रवृत्तिरूपतीन दण्डों (योगों) से विरत होना। (ग) दश प्रकार का वैयावृत्य : इसका वर्णन वैयावृत्य तप के अन्तर्गत किया जाएगा। (घ) रत्नत्रय के धारक: उपाध्याय सम्यग्दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप रत्नत्रय के धारक होते हैं। (अ) सम्यग्दर्शन : __ सम्यग्दर्शन काअर्थ है-सत्य कादेखनायासत्य का साक्षात्कार करना, परन्तु सत्य का पूर्ण साक्षात्कार चक्षु इन्द्रिय के द्वारा सम्भव न होने से सत्यभूत जो नौ पदार्थ जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आसव, संवर, निर्जरा और मोक्ष बतलाए गए हैं, उनके सद्भाव में विश्वास करना सम्यग्दर्शन है। इन नौ पदार्थों का श्रद्धान हो जाने पर चेतन-अचेतन का भेदज्ञान हो जाता है, संसारिक विषयों से विरक्ति और मोक्ष के प्रति लगाव हो जाता है। इस प्रकार के भावों के उत्पन्न होनेपर मनुष्यधीरे-धीरे सत्य का पूर्ण साक्षात्कार कर लेता है। 1. पंचासवा विरमणं पंचिंदियनिग्गहो कसायजओ। दंडत्तयस्य विरई सतरसहा संजमो होई।। प्रवचनसारोद्धार, गा०५५६ 2. जीवाजीवा य बन्धो य पुण्णं पावासवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो सन्ते ए तहिया नव।। उ० 28.24 3. तहियाणं तु भावाणं समावे उवस्सणं। भावेणं सहस्तस्स सम्मत्तं तं वियाहियं / / वही, 28.15
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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