SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 197
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपाध्याय परमेष्ठी ___161 (11) अनेकरूपधूना : वस्त्र को अनेक बार-तीन बार से अधिक झटकानाअथवाअनेक वस्त्रों को एकसाथ एक बार में हीझटकाना। (12) प्रमाणप्रमाद :प्रस्फोटन और प्रमार्जन का जो प्रमाण (नौ-नौ बार) बताया है, उसमें प्रमाद करना। (13) गणनोपगणना : प्रस्फोटन और प्रमार्जन के प्रमाण में शंका होने पर हाथ की अंगुलियों की पर्वरेखाओं से गिनती करना और उससे उपयोग का चूक जाना अर्थात् ध्यान कहीं दूसरी तरफ चले जाना गणनोपगणना। इस प्रकार छह प्रकार की विधिपरक प्रतिलेखना, छह प्रकार की अप्रमाद प्रतिलेखना और तेरह प्रकार की प्रमाद प्रतिलेखना यह पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना होती है। (ङ) चार प्रकार का अभिग्रह: __ अभिग्रह से अभिप्राय है-प्रतिज्ञा विशेष / द्रव्य,क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा से अभिग्रह के भी चार प्रकार होते हैं।' भगवान् महावीर ने अपनीघोर तपस्या के समय इस प्रकार का अभिग्रह ग्रहण किया था-द्रव्य से उड़द के फुकले सूप के कोने में हों, क्षेत्र से देहली के बीच खड़ी हो, काल से भिक्षा का समय बीत चुका हो, भाव से राजकुमारी दासी बनी हो, हाथ में हथकड़ी और पांवों में बेड़ी हो, मुंडित हो, आंखों में आंसू और जो तेले की तपस्या किए हुए हो, इस प्रकार की स्त्री के हाथ से आहार मिलेगा तो लूंगा, अन्यथा नहीं। इस प्रकार का अभिग्रह पूरा न होने तक भगवान् महावीर अपनी तपस्या में अटल रहें / पाँच मास और पच्चीस दिन के पश्चात् इस प्रकार के लक्षणों वाली चम्पानेरशदधिवाहन की पुत्री राजकुमारीचन्दन बाला से महावीर स्वामी ने भिक्षा ग्रहण की थी। 1. दवे खित्ते काले भावे य अभिग्गहा विणिदिट्ठा। प्रवचनसारोद्धार, गा०५६६ 2. स्वामिना तत्र पौषबहुलप्रतिपदि अभिग्रहो जगृहे-यथा द्रव्यतः कुल्माषान् सूर्पकोणेन, क्षेत्रतो देहल्या एकं पादमारत एकं परतः कृत्वा, कालतो निर्वृत्तेषु भिक्षाचरेषु राजसुता दसत्वमाप्ता निगडिता रुदती मुण्डितमस्तका, अष्टमभक्तिका, चेदास्यति तदा ग्रहिष्यामीति। आ०नि०, अवचूर्णि गा० 520-21 3. इतश्च चम्पेश दधिवाहनधारिणीसुता वसुमती चन्दनबालेति---- पञ्चदिनोनया षण्णमास्या स्वामिना भिक्षा लब्धा / / वही, गा०५२०-२१
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy