SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य - परमेष्ठी 145 तिलोयपण्णत्ति के लेखक यतिवृषभ ने भी आचार्यों के गुणों का वर्णन करते हुए उनकी प्रसन्नता प्राप्त करने की अभिलाषा की है।' आचार्यों की भक्ति से सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता हैं / कुन्दकुन्दाचार्य कहते है कि “मुझ अज्ञानी के द्वारा आपके गुणों के समूह की जो स्तुति की गई है, वह गुरुभक्ति से युक्त मुझे बोधिलाभ करावे"। उन्होंने एक दूसरे स्थान पर कहा है कि आचार्य की भक्ति करने वाला,अष्टकर्मों का नाश करके संसार-सागर से पार हो जाता है। आचार्य उमास्वाति ने आचार्य-भक्ति को तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव का कारण माना हैं। अभिधानराजेन्द्रकोष में आचार्य को नमस्कार करने से विद्या और मन्त्र की सिद्धि स्वीकार की गई है। अनागारधर्मामृत में आचार्य की उपासना के माहात्म्य की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि 'जिनके चरणों का आश्रय तत्काल ही संसार मार्ग की थकान को दूर करके निवृत्तिरूपी अमृत की बार-बार वर्षा करता है, उस आचार्य की सेवा कौन नहीं करेगा अर्थात् वे सभी मुमुक्षुओं के द्वारा सेवनीय इस प्रकार आचार्य का पद महान् एवं गौरवमय है। समस्त जैन-वाङ्मय में उनकी गुणगरिमा उपलब्ध होती है। वे समस्त संघ के अग्रणी होते हैं। वे मुमुक्षुओं को ज्ञान के मार्ग पर लाकर तथा उन्हें सांसारिक विषय-भोगों से दूर हटाकर भवसागर से पार लगा देते हैं। अतएव हमें शुद्धभाव से आचार्य के गुणों में अनुराग रखते हुए उनकी वैय्यावृत्ति(शुश्रूषा) करनी चाहिए। 1. पंचमहव्वयतुंगा तक्कालियसपरसमयसुदधारा / __ णाणागुणभरिया आइरिया मम पसीदंतु / / तिलोय० 1.3 2. तुम्हं गुणगणसंथुदि अजाणमाणेण जो मया वुत्तो / * देउ मम बोहिलाहं गुरुभत्तिजुदत्थओ णिच्वं / / दशभक्ति, पृ० 213 3. गुरुभक्तिसंयमाभ्यां च तरन्ति संसारसागरं घोरम् / छिन्दन्ति अष्टकर्माणि जन्म-मरणे न प्राप्नुवन्ति / / वही, आचार्य भक्ति, क्षेपक श्लोक, पृ० 214 4. दे०- त० सू०६.२३ 5. भत्तीइ जिणवराणां खिज्जंती पुव्व संचिआ कम्मा / आयरिअनमुक्कारेण विज्जमंता य सिज्झंति / / अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग-५, 10 1365 6. यत्पादच्छायमुच्छिद्य स द्यो जन्मपथलमम / वर्वष्टि निवृतिसुधां सूरिः सेव्यो न 6.32
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy