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________________ आचार्य - परमेष्ठी 143 गण को छोड़ सकते हैं। (४)आचार्य और उपाध्याय को बीमार, तपस्वी तथा विद्याध्ययन करने वाले साधुओं की वैयावृत्त्य का ठीक प्रबन्ध करना चाहिए। इसके अभाव में भी संघ में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है। (5) आचार्य और उपाध्यायको दूसरों की सम्मति से कार्य करना चाहिए अथवा शिष्यों से दैनिक कृत्यों के विषय में पूछते रहना चाहिए। इससे संघ में स्थिति ठीक बनी रहती है। (६)आचार्य तथा उपाध्याय को अप्राप्त आवश्यक उपकरणों की प्राप्ति के लिए सम्यक् व्यवस्था करनी चाहिए अर्थात् जो वस्तुएं आवश्यक हैं और साधुओं के पास नहीं है उनकी निर्दोष प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए। (7) आचार्य तथा उपाध्याय को पूर्व-प्राप्त उपकरणों की यथाविधि रक्षा का ध्यान रखना चाहिए। उन्हें ऐसे स्थान पर न रखने दिया जाए जहाँ वे खराब हो जाएं अथवा चुरा ली जाएं। इस प्रकार किए जाने पर संघ की व्यवस्था में किसी भी प्रकार की बाधा नहीं आती, व्यवस्था सुचारू रूप से चलती रहती है और संघ में वृद्धि होती रहती है। (ट) आचार्य तथा उपाध्याय का गण से अपक्रमण : गण-अपक्रमण से अभिप्राय है-गण का त्याग कर देना, गण से बाहर निकल जाना / सामान्यतः ऐसी स्थिति नहीं आती है परन्तु कुछ एक ऐसे कारण होते हैं जब आचार्य तथा उपाध्याय विवश होकर गण को छोड़ जाते हैं। स्थानाङ्गसूत्र में ऐसे पाँच कारण बतलाए गए हैं जो निम्न प्रकार हैं-- (1) आज्ञा और धारणा का सम्यक् प्रयोग न होना : गण में व्यवस्था को बनाए रखने के लिए आज्ञा एवं धारणा का सम्यक् प्रयोग होना आवश्यक है। यदि आचार्य तथा उपाध्याय आज्ञा या धारणा का सम्यक् प्रयोग न कर सकें तो गण से अपक्रमण कर देते हैं। (2) वन्दन और विनय का सम्यक् प्रयोग न होना : जैन परम्परा की गण व्यवस्था में आचार्य का स्थान सर्वोपरि है परन्तु ऐसा कोई नियम नहीं है कि वे वय, श्रुत और दीक्षापर्याय में सबसे बड़े ही हों। उनका यह कर्तव्य है कि जो श्रुतस्थविर तथा पर्यायस्थविर हैं, उनका वे वन्दन आदि से उचित सम्मान करें। यदि वे पद के अभिमान से ऐसा न कर सकें तो गण को छोड़ देते हैं। 1. दे०-ठाणं.५.१६७
SR No.023543
Book TitleJain Darshan Me Panch Parmeshthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagmahendra Sinh Rana
PublisherNirmal Publications
Publication Year1995
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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